शुक्रवार, 8 मार्च 2013

389. अब न ऊ देवी है न कड़ाह

अब न ऊ देवी है न कड़ाह

*******

सरेह से अभी-अभी लौटे हैं   
गोड़ में कादो-माटी, अँचरा में लोर  
दउरी में दू ठो रोटी-नून-मर्चा 
जाने काहे आज मन नहीं किया 
कुछो खाने का
न कौनो से बतियाने का 
भोरे से मन बड़ा उदास है 
मालिक रहते त आज इ दिन देखना न पड़ता 
आसरा छूट जाए, त केहू न अपन 
दू बखत दू-दू गो रोटी आ दू गो लूगा (साड़ी)
इतनो कौनो से पार न लगा  
अपन जिनगी लुटा दिए
मालिक चले गए 
कूट पीस के बाल बच्चा पोसे, हाकिम बनाए
अब इ उजर लूगा 
आ भूईयाँ पर बईठ के खाने से 
सबका इज्जत जाता है 
अपन मड़इए ठीक
मालिक रहते त का मजाल जे कौनो आँख तरेरता
भोरे से अनाज उसीनाता 
आ दू सेर धान-कुटनी ले जाती
अब दू कौर के लिए
भोरे-भोरे, सरेहे-सरेहे... 
आह!
अब न ऊ देवी है न कड़ाह। 

- जेन्नी शबनम (8. 3. 13)
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर)
____________________