कुछ ख़त...
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जिसपर तुम्हारा पता नहीं
रोशनाई ज़रा-ज़रा पसरी हुई
हर्फ़ ज़रा-ज़रा भटके हुए
तुमने प्यार लिखा
दर्द भी
और मेरी रुसवाई भी
तेरे ख़त में
तेरे-मेरे दर्द पिन्हा हैं
हयात के ज़ख़्म हैं
थोड़े तेरे थोड़े मेरे
तेरे ख़त को हाथों में लिए
तेरे लम्स को महसूस करते हुए
मेरी पुरनम आँखें
धुँधले हर्फों से
तेरा अक्स तराशती हैं
हयात का हिसाब लगाती हैं
वज़ह ढूँढ़ती हैं
क्यों कतरा-कतरा हँसी
वक़्त की दीवारों में
चुन दी गई
क्यों सुकून को
देश निकाला मिला
आज भी
यादों में बसी वो एक शब
तमाम यादों पर भारी है
जब
सोचे समझे फैसले की तामील
का आख़िरी पहर था
एक को धरती
दूजे को ध्रुवतारा बन जाना था
ठीक उसी वक़्त
वक़्त ने पंजा मारा
देखो
वक़्त के नाखूनों में
हमारे दिल के
खुरचे हुए कच्चे मांस
और ताज़ा लहू
अब भी जमे हुए हैं
सच है
कोई फर्क नहीं
वक़्त और दैत्य में
देखो
हमारे दरम्यान खड़ी
वक़्त की दीवार
सफ़ेद चूने से पुती हुई है
जिसपर
हमारे किस्से खुदे हुए हैं
और आज
तुम्हारे इस ख़त को भी
उस पर चस्पा हो जाना है
जिसके जवाब तुम्हें चाहिए ही नहीं
मालूम है
कुछ ख़त
जवाब पाने के लिए
लिखे भी नहीं जाते !
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पिन्हा - छुपा हुआ
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- जेन्नी शबनम (18. 3. 2014)
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