गुरुवार, 7 जून 2012

350. पाप-पुण्य

पाप-पुण्य

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पाप-पुण्य के फ़ैसले का भार 
क्यों नहीं परमात्मा पर छोड़ते हो  
क्यों पाप-पुण्य की मान्य परिभाषाओं में उलझ
क्षण-क्षण जीवन व्यर्थ गँवाते हो
जबकि परमात्मा की सत्ता पर पूर्ण भरोसा करते हो।  

हर बार एक द्वन्द में उलझ जाते हो
और फिर अपने पक्ष की सत्यता को प्रमाणित करने 
कभी सतयुग कभी त्रेता कभी द्वापर तक पहुँच जाते हो 
जबकि कलयुगी प्रश्न तुम्हारे ही होते हैं  
और अपने मुताबिक़ पूर्व निर्धारित उत्तर देते हो। 

एक भटकती ज़िन्दगी बार-बार पुकारती है
बेबुनियाद संदेहों और पूर्व नियोजित तर्क के साथ 
बहुत चतुराई से बच निकलना चाहते हो  
कभी सोचा कि पाप की परिधि में क्या-क्या हो सकते हैं
जिन्हें त्याग कर पुण्य कमा सकते हो। 

इतना सहज नहीं होता 
पाप-पुण्य का मूल्यांकन स्वयं करना 
किसी का पाप किसी और का पुण्य भी हो सकता है 
निश्चित ही पाप-पुण्य की कसौटी कर्त्तव्य पर टिकी है 
और जिसे पाप माना वास्तव में उससे पुण्य कमा सकते हो। 

- जेन्नी शबनम (7. 6. 2012)
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