ज़िन्दगी लिख रही हूँ...
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आसमान पर
ज़िन्दगी लिख रही हूँ
उन सबकी
जिनके पास शब्द तो हैं
पर लिखने की आज़ादी नहीं,
तुम्हें तो पता ही है
क्या-क्या लिखूँगी -
वो सब
जो अनकहा है
और वो भी
जो हमारी तकदीर में लिख दिया गया था
जन्म से पूर्व
या शायद
यह पता होने पर कि
दुनिया हमारे लिए होती ही नहीं है,
बुरी नज़रों से बचाने के लिए
बालों में छुपाकर
कान के नीचे
काजल का टीका
और दो हाथ आसमान से दुआ माँगती रही
जाने क्या,
पहली घंटी के साथ
क्रमश बढ़ता रुदन
सबसे दूर इतनी भीड़ में
बड़ा डर लगा था
पर बिना पढ़ाई ज़िन्दगी मुकम्मल कहाँ होती है,
वक़्त की दोहरी चाल
वक़्त की रंजिश
वक़्त ने हठात
जैसे जिस्म के लहू को सफ़ेद कर दिया
सब कुछ गडमगड
सपने-उम्मीद-भविष्य
फड़फड़ाते हुए
पर-कटे-पंछी-से धाराशायी,
अवाक्
स्तब्ध
आह...!
कहीं कोई किरण ?
शायद
नहीं...
दस्तूर तो यही है न !
जिस्म जब अपने ही लहू से रंग गया
आत्मा जैसे मूक हो गई
निर्लज्जता अब सवाल नहीं
जवाब बन गई
यही तो है हमारा अस्तित्व
भाग सको तो भाग जाओ
कहाँ ?
ये भी खुद का निर्णय नहीं,
लिखी हुई तकदीर पर
मूक सहमति
आखिरी निर्णय
आसमान की तरफ दुआ के हाथ नहीं
चिता के कोयले से
आसमान पर ज़िन्दगी की तहरीर...!
- जेन्नी शबनम (नवम्बर 11, 2013)
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