गुरुवार, 4 जून 2009

62. ख़त

ख़त

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इबारत लिख प्रेम की
लिफ़ाफ़े में रख, छुपा देती हूँ,
भेजूँगी ख़त महबूब को  

पन्नों से फिसल जाते हैं हर्फ़
और प्रेम की जगह छप जाता है दर्द,
जाने कौन बदल देता है?

कभी न चाहा कि बाँटूँ अपना दर्द
अमानत है, जो ख़ुदा ने दी कि रखूँ सहेजकर,
उसके लिए मुझसा भरोसेमंद, शायद कोई नहीं  

हैरान हूँ, परेशान हूँ
पैग़ाम न भेज पाने से, उदास हूँ,
कैसे भेजूँ, दर्द में लिपटा कोई ख़त?

या खुदा! हर्फ़ मेरा बदल जाता जो
तक़दीर मेरी क्यों न बदल पाता वो?
ख़तों के ढेर में, रोज़ इज़ाफा होता है  

सारे ख़त, अपनी रूह में छुपाती हूँ,
क्यों लिखती हूँ वो ख़त?
जिन्हें कभी कहीं पहुँचना ही नहीं है  

अब सारे ख़त, प्रेम या दर्द
मेरे ज़ेहन में रोज़ छपते हैं,
और मेरे साथ ज़िन्दगी जीते हैं 

- जेन्नी शबनम (दिसंबर, 2008)
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