तुम शामिल हो
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तुम शामिल हो
मेरी ज़िंदगी की कविता में...
कभी बयार बनकर
जो कल रात चुपके से घुस आई, झरोखे से
और मेरे बदन से लिपटी रही, शब भर!
कभी ठंड की गुनगुनी धूप बनकर
जो मेरी देहरी पर, मेरी बतकही सुनते हुए
मेरे साथ बैठ जाती है अलसाई-सी, दिन भर!
कभी फूलों की ख़ुशबू बनकर
जो उस रात, तुम्हारे आलिंगन से मुझमें समा गई
और रहेगी, उम्र भर!
कभी जल बनकर
जो उस दिन, तुमसे विदा होने के बाद
मेरी आँखों से बहता रहा, आँसू बनकर !
कभी अग्नि बनकर
जो उस रात दहक रही थी, और मैं पिघल कर
तुम्हारे साँचे में ढल रही थी
और तुम इन सबसे अनभिज्ञ, महज़ कर्त्तव्य निभा रहे थे !
कभी साँस बनकर
जो मेरी हर थकान के बाद भी, मुझे जीवित रखती है
और मैं फिर से, उमंग से भर जाती हूँ !
कभी आकाश बनकर
जहाँ तुम्हारी बाहें पकड़, मैं असीम में उड़ जाती हूँ
और आकाश की ऊँचाइयाँ, मुझमें उतर जाती है !
कभी धरा बनकर
जिसकी गोद में, निर्भय सो जाती हूँ,
इस कामना के साथ कि
अंतिम क्षणों तक, यूँ ही आँखें मूँदी रहूँ,
तुम मेरे बालों को सहलाते रहो
और मैं सदा केलिए सो जाऊँ !
कभी सपना बनकर
जो हर रात मैं देखती हूँ,
तुम हौले से मेरी हथेली थाम, कहते हो -
''मुझे छोड़ तो न दोगी ?''
और मैं चुपचाप, तुम्हारे सीने पे सिर रख देती हूँ !
कभी भय बनकर
जो हमेशा मेरे मन में पलता है,
और पूछती हूँ -
''मुझे छोड़ तो न दोगे ?''
जानती हूँ तुम न छोड़ोगे
एक दिन मैं ही चली जाऊँगी
तुमसे बहुत दूर, जहाँ से वापस नहीं होता है कोई !
तुम शामिल हो मेरे सफ़र के, हर लम्हों में
मेरे हमसफ़र बनकर
कभी मुझमें मैं बनकर
कभी मेरी कविता बनकर !
- जेन्नी शबनम (5. 3. 2011)
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तुम शामिल हो
मेरी ज़िंदगी की कविता में...
कभी बयार बनकर
जो कल रात चुपके से घुस आई, झरोखे से
और मेरे बदन से लिपटी रही, शब भर!
कभी ठंड की गुनगुनी धूप बनकर
जो मेरी देहरी पर, मेरी बतकही सुनते हुए
मेरे साथ बैठ जाती है अलसाई-सी, दिन भर!
कभी फूलों की ख़ुशबू बनकर
जो उस रात, तुम्हारे आलिंगन से मुझमें समा गई
और रहेगी, उम्र भर!
कभी जल बनकर
जो उस दिन, तुमसे विदा होने के बाद
मेरी आँखों से बहता रहा, आँसू बनकर !
कभी अग्नि बनकर
जो उस रात दहक रही थी, और मैं पिघल कर
तुम्हारे साँचे में ढल रही थी
और तुम इन सबसे अनभिज्ञ, महज़ कर्त्तव्य निभा रहे थे !
कभी साँस बनकर
जो मेरी हर थकान के बाद भी, मुझे जीवित रखती है
और मैं फिर से, उमंग से भर जाती हूँ !
कभी आकाश बनकर
जहाँ तुम्हारी बाहें पकड़, मैं असीम में उड़ जाती हूँ
और आकाश की ऊँचाइयाँ, मुझमें उतर जाती है !
कभी धरा बनकर
जिसकी गोद में, निर्भय सो जाती हूँ,
इस कामना के साथ कि
अंतिम क्षणों तक, यूँ ही आँखें मूँदी रहूँ,
तुम मेरे बालों को सहलाते रहो
और मैं सदा केलिए सो जाऊँ !
कभी सपना बनकर
जो हर रात मैं देखती हूँ,
तुम हौले से मेरी हथेली थाम, कहते हो -
''मुझे छोड़ तो न दोगी ?''
और मैं चुपचाप, तुम्हारे सीने पे सिर रख देती हूँ !
कभी भय बनकर
जो हमेशा मेरे मन में पलता है,
और पूछती हूँ -
''मुझे छोड़ तो न दोगे ?''
जानती हूँ तुम न छोड़ोगे
एक दिन मैं ही चली जाऊँगी
तुमसे बहुत दूर, जहाँ से वापस नहीं होता है कोई !
तुम शामिल हो मेरे सफ़र के, हर लम्हों में
मेरे हमसफ़र बनकर
कभी मुझमें मैं बनकर
कभी मेरी कविता बनकर !
- जेन्नी शबनम (5. 3. 2011)
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