गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

30. लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त

लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त

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लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त
सिर्फ़ तुम्हारे लिए, मेरा ख़त
मेरी स्याही मेरे ज़ख़्मों से रिसती है
जिससे तुम्हारे मन पे मैंने तहरीर रची है  

हर जज़्बात मेरे, कुछ एहसास-ए-बयाँ करते हैं
ज़माना ना समझे, इसीलिए तो तुम्हीं से कहते हैं 
तुम्हारी नज़रें हर हर्फ़ में ख़ुद को तलाश रही हैं 
यकीन है, मेरी हर इबारत तुमसे कुछ कह रही है  

जब कभी मेरे ख़त ना पहुँचे, आँखें नम कर लेना
शायद अब निजात मिली मुझे, सब्र तुम कर लेना 
समझना, मेरी रूह को ज़मानत मिल गई
ख़ुदा से रहम और रिहाई की मंज़ूरी, मुझे मिल गई 

मेरे तुम्हारे बीच, मेरे ख़त ही तो सिर्फ़ एक ज़रिया है
मैं ना रही अब, ये बताने का बस यही एक ज़रिया है 
चाहे जितने तुम पाषाण बनो, थोड़ा तुम्हें भी रुलाना है
नहीं आऊँगी फिर कभी, जश्न मुझे भी तो मनाना है 

मैं फिर भी रोज़ एक ख़त लिखूँगी
चाहे जैसे भी हो तुम तक पहुँचा दूँगी 
ये एक नयी आदत तुम पाल लेना
हवाओं में तैरती मेरी पुकार तुम सुन लेना 
ठंडी बयार जब चुपके से कानों को सहलाए
समझना मैंने तुम्हें अपने ख़त सुनाए  

मेरे हर गुज़रे लम्हे और ख़त अपने सीने में दफ़न कर लेना
सफ़र पूरा कर जब तुम आओ, मुझे उन ख़तों से पहचान लेना 
कभी ख़त जो न लिख पाऊँ, ताकीद तुम करना नहीं
मान लेना पुराना ज़ख़्म पिघला नहीं
और नया ज़ख़्म अभी जमा नहीं  

लिखूँगी रोज़ मैं एक ख़त
सिर्फ़ तुम्हारे लिए मेरा ख़त

- जेन्नी शबनम (16. 9. 2008)
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29. नफ़रत के बीज

नफ़रत के बीज

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नफ़रत के बड़े-बड़े पेड़ उगे हैं हर कहीं
इंसान के अलग-अलग रूपों में। 
ये बीज हमने कब बोये?

सोचती हूँ -
ख़ुदा ने ज़मीन पर आदम और हव्वा को भेजा
उनके वर्जित फल खाने से इंसान जन्मा,
वह वर्जित फल
उन्होंने भूख के लिए खाया होगा
लड़कर आधा-आधा
न कि मनचाही संतान के लिए
प्रेम से आधा-आधा। 

शायद उनके बीच जब तीसरा आया हो
उन्हें नफ़रत हो गई हो उससे  
और इसी नफ़रत के कारण 
इंसान के चेतन-अचेतन मन में बस गया है -
ईर्ष्या, द्वेष, आधिपत्य, बदला, दुश्मनी,
हत्या, दुराचार, घृणा, क्रोध, प्रतिशोध। 

नफ़रत की ही इंतिहा है
जब इसकी हद इंसानी रिश्तों को पारकर
सियासत, मुल्कों, क़ौमों तक जा पहुँची। 
पहले बीज से अनगिनत पौधे बनते गए
हर युग में नफ़रत के पेड़ फैलते गए। 

सतयुग, द्वापर, त्रेता हो या कलियुग
ऋषिमुनि-दुराचारी, राजा-रंक, देवी-देवता
सुर-असुर, राम-रावण, कृष्ण-कंस, कौरव-पांडव
से लेकर आज तक का
जाति, वर्ण और क़ौमी विभाजन
औरत मर्द का मानसिक विभाजन
दैविक शक्तियों से लेकर हथियार
और अब परमाणु विभीषिका। 

हम कैसे कहें
कि नफ़रत हमने आज पैदा की। 
हमने सदियों युगों से नफ़रत के बीज को
पौधों से पेड़ बनाया
उन्हें जीवित रहने और जड़ फैलाने में
सहूलियत और मदद दी,
जबकि हमें, उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना था। 

सोचती हूँ -
ख़ुदा ने आदम और हव्वा में
पहले चेतना दी होती
और उस वर्जित फल को खिलाकर
मोहब्बत भरे इंसान से संसार बसाया होता। 

सोचती हूँ
काश! ऐसा होता!

- जेन्नी शबनम (14. 9. 2008)
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28. शाइर

शाइर

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शाइर के अल्फ़ाज़ में
जाने किसकी रूह तड़पती है
हर हर्फ़ में जाने कौन सिसकता है
ख़्वाबों में जाने कौन पनाह लेता है

किसका अफ़साना लिए वो लम्हा-लम्हा जलता है
किसका दर्द वो अपने लफ़्ज़ों में पिरोता है
किसका जीवन वो यादों में पल-पल जीता है

शायद जज़्बाती है, रूहानी है, वो इंसान है
शायद मासूम है, मायूस है, वो बेमिसाल है
इसीलिए तो ग़ैरों के आँसू अपने शब्दों से पोंछता है
और दुनिया का ज़ख़्म सहेजकर शाइर कहलाता है । 

- जेन्नी शबनम (सितम्बर 5, 2008)
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27. मैं आज ग़ज़लों की किताब बनूँगी

मैं आज ग़ज़लों की किताब बनूँगी

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आज मैं कोरा काग़ज़ बनूँगी   
या कैनवास का रूप धरुँगी,   
आज किसी के कलम की स्याही बनूँगी   
या इन्द्रधनुष-सी खिलूँगी,   
आज कोई मुझसे मुझपर अपना गीत लिखेगा   
या मुझसे मुझपर अपना रंग भरेगा,   
आज कोई मुझसे अपना दर्द बाँटेगा   
या मुझपर अपने सपनों का अक्स उकेरेगा,   
आज किसी के नज़्मों में बसूँगी   
या किसी के रूह में पनाह लूँगी,   
आज कोई पुराना नाता पिघलेगा   
या कोई नया ग़म निखरेगा,   
आज किसी पर पहला ज़ुल्म ढाऊँगी,   
या अपना आख़िरी जुर्म करुँगी,   
आज कोई नया इतिहास रचेगा   
या मैं उसके सपने को रँगूँगी,   
आज किसी के दामन में अपनी अंतिम साँस भरूँगी   
या ख़ुद को बहाकर उसके रक्त में जा पसरूँगी,   
आज ख़ुद को बिखराकर ग़ज़लों की किताब बनूँगी   
या आज ख़ुद को रँगकर उस ग्रन्थ को सँवार दूँगी,   
मैं आज ग़ज़लों की किताब बनूँगी!   
मैं आज ग़ज़लों की किताब बनूँगी!   

- जेन्नी शबनम (8. 9. 2008) 
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