मंगलवार, 18 सितंबर 2012

371. फ़र्ज़ की किस्त

फ़र्ज़ की किस्त 

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लाल, पीले, गुलाबी 
सपने बोना चाहती थी
जिन्हें तुम्हारे साथ 
उन पलों में तोडूँगी 
जब सारे सपने खिल जाएँ 
और ज़िन्दगी से हारे हुए हम 
इसके बेहद ज़रूरतमंद हों। 
पल-पल ज़िन्दगी बाँटना चाहती थी
सिर्फ़ तुम्हारे साथ
जिन्हें तब जियूँगी   
जब सारे फ़र्ज़ पूरे कर 
हम थक चुके हों
और हम दूसरों के लिए 
बेकाम हो चुके हों।  

हर तजरबे बतलाना चाहती थी
ताकि समझ सकूँ दुनिया को 
तुम्हारी नज़रों से 
जब मुश्किल घड़ी में 
कोई राह न सूझे 
हार से पहले एक कोशिश कर सकूँ
जिससे जीत न पाने का मलाल न हो। 

जानती हूँ 
चाहने से कुछ नहीं होता 
तक़दीर में विफलता हो तो 
न सपने पलते हैं 
न ज़िन्दगी सँवरती है 
न ही तजरबे काम आते हैं। 

निढ़ाल होती मेरी ज़िन्दगी    
फ़र्ज़ अदा करने के क़र्ज़ में 
डूबती जा रही है
और अपनी सारी चाहतों से 
फ़र्ज़ की किस्त 
मैं तन्हा चुका रही हूँ। 

- जेन्नी शबनम (18. 9. 2012)
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