क्या हुक्म है मेरे आका...
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अक्सर सोचती हूँ
किस ग्रह से मैं आई हूँ
जिसका ठिकाना
न कोख़ में
न घर में
न गाँव शहर में
मुमकिन है
उस ख़ुदा के घर में भी नहीं
अन्यथा क्रूरता के इस जंगल में
बार-बार मुझे भेजा न गया होता
चाहे जन्मूँ चाहे क़त्ल होऊँ
चाहे जियूँ चाहे मरूँ
चाहे तमाम दर्द के साथ हँसूँ
पग-पग पर एक कटार है
परम्परा का
नातों का
नियति का
जो कभी कोख में
झटके से घुसता है
कभी बदन में
ज़बरन ठेला जाता है
कभी कच्ची उम्र के मन को
हल्के-हल्के चीरता है
जरा-ज़रा सीने में घुसता है
घाव हर वक़्त ताज़ा
तन से मन तक रिसता रहता है
जाने ये कौन सा वक़्त है
कभी बढ़ता नहीं
दिन महीना साल सदी
कुछ बदलता नहीं
हर रोज़ उगना डूबना
शायद सूरज ने अपना शाप
मुझे दे दिया है
तन का पीर
तन से ज़्यादा
मन का पीर है
मैं बुझना चाहती हूँ
मैं मिटना चाहती हूँ
बेघरबार हूँ
चाहे उस स्वर्ग में जाऊँ
चाहे इस नरक में टिकूँ
अब बहुत हुआ
अपने उस ग्रह पर
लौटना चाहती हूँ
जहाँ से इस जंगल में
निहत्था मुझे भेजा गया
शिकार होने के लिए
जाकर शीघ्र लौटूँगी अपने ग्रह से
अपने हथियार के साथ
फिर करूँगी
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अक्सर सोचती हूँ
किस ग्रह से मैं आई हूँ
जिसका ठिकाना
न कोख़ में
न घर में
न गाँव शहर में
मुमकिन है
उस ख़ुदा के घर में भी नहीं
अन्यथा क्रूरता के इस जंगल में
बार-बार मुझे भेजा न गया होता
चाहे जन्मूँ चाहे क़त्ल होऊँ
चाहे जियूँ चाहे मरूँ
चाहे तमाम दर्द के साथ हँसूँ
पग-पग पर एक कटार है
परम्परा का
नातों का
नियति का
जो कभी कोख में
झटके से घुसता है
कभी बदन में
ज़बरन ठेला जाता है
कभी कच्ची उम्र के मन को
हल्के-हल्के चीरता है
जरा-ज़रा सीने में घुसता है
घाव हर वक़्त ताज़ा
तन से मन तक रिसता रहता है
जाने ये कौन सा वक़्त है
कभी बढ़ता नहीं
दिन महीना साल सदी
कुछ बदलता नहीं
हर रोज़ उगना डूबना
शायद सूरज ने अपना शाप
मुझे दे दिया है
तन का पीर
तन से ज़्यादा
मन का पीर है
मैं बुझना चाहती हूँ
मैं मिटना चाहती हूँ
बेघरबार हूँ
चाहे उस स्वर्ग में जाऊँ
चाहे इस नरक में टिकूँ
अब बहुत हुआ
अपने उस ग्रह पर
लौटना चाहती हूँ
जहाँ से इस जंगल में
निहत्था मुझे भेजा गया
शिकार होने के लिए
जाकर शीघ्र लौटूँगी अपने ग्रह से
अपने हथियार के साथ
फिर करूँगी
उन जंगली जानवरों पर वार
जिन्होंने मुझे अधमरा कर दिया है
जिन्होंने मुझे अधमरा कर दिया है
अपने शौक के लिए
मेरी साँसों को बंधक बना कर रखा है
बोतल के जिन की तरह
जो कहे -
''क्या हुक्म है मेरे आका'' !
मेरी साँसों को बंधक बना कर रखा है
बोतल के जिन की तरह
जो कहे -
''क्या हुक्म है मेरे आका'' !
- जेन्नी शबनम (8. 3. 2015)
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