गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

214. ज़ख़्मी पहर

ज़ख़्मी पहर

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वक़्त का एक ज़ख़्मी पहर
लहू संग ज़ेहन में समाकर
जकड़ लिया है मेरी सोच

कुछ बोलूँ
वो पहर अपने ज़ख़्म से
रंग देता है मेरे हर्फ़

चाहती हूँ
कभी किसी वक़्त कह पाऊँ
कुछ रूमानी
कुछ रूहानी-सी बात

पर नहीं
शायद कभी नहीं
ज़ख़्मी वक़्त से
मुक्ति नहीं

नहीं कह पाऊँगी
ऐसे अल्फ़ाज़
जो किसी को बना दे मेरा
और पा सकूँ
कोई सुखद एहसास!

- जेन्नी शबनम (31. 12. 2010)
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सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

213. यह सब इत्तिफ़ाक़ नहीं

यह सब इत्तिफ़ाक़ नहीं

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कई लम्हे जो चुपके से
मेरे हवाले किये तुमने
और कुछ पल चुरा लिए
ज़माने से हमने
इतना जानती हूँ
यह सब इत्तिफ़ाक़ नहीं
तक़दीर का कोई रहस्य है
जो समझ से परे है
बेहतर भी है कि न जानूँ
जानना भी नहीं चाहती
क्यों हुआ यह इत्तिफ़ाक़?
क्या है रहस्य?
किसी आशंका से भयभीत हो
उन एहसासों को खोना नहीं चाहती
जो तुमसे पायी हूँ
जानती हूँ
कोई मंज़िल नहीं
न मिलनी है कभी मुझे
फिर भी हर बार
एक नयी ख़्वाहिश पाल लेती हूँ
और थोड़ा-थोड़ा जी लेती हूँ
जीवन के वो सभी पल
मुमकिन है
अब दोबारा न मिल पाए
फिर भी उम्मीद है
शायद
एक बार फिर...!
अब बस जीना चाहती हूँ
आँखें मूँद उन पलों के साथ
जिनमें
तुम्हें न देख रही थी
न सुन रही थी
सिर्फ़ तुम्हें जी रही थी

- जेन्नी शबनम (14 . 2 . 2011)
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रविवार, 13 फ़रवरी 2011

212. एक स्वप्न की तरह

एक स्वप्न की तरह

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बनते-बनते जाने कैसे
मैं कई सवाल बन गई हूँ   
जिनके जवाब
सिर्फ़ तुम्हारे पास हैं 
पर तुम बताओगे नहीं
मैं यह भी जानती हूँ,
शिकस्त खाना तुम्हारी आदत नहीं
और मात देना मेरी फ़ितरत नहीं,
फिर भी
जाने क्यों
तुम ख़ामोश होते हो
शायद ख़ुद को रोके रखते हो
कहीं मेरी आवारगी
मेरी यायावरी
तुम्हे डगमगा न दे
या फिर तुम्हारी दिशा बदल न दे,
मेरे हमदर्द!
फ़िक्र न करो
कुछ नहीं बदलेगा
जवाब तुमसे पुछूँगी नहीं
मैं यूँ ही सवाल बनकर
रह जाऊँगी
ख़ुद में गुम
तुमको यूँ ही दूर से देखते हुए
एक स्वप्न की तरह!

- जेन्नी शबनम (11. 2. 2011)
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