रविवार, 2 मार्च 2014

444. थम ही जा

थम ही जा

*******

जैसे-जैसै मन सिकुड़ता गया
जिस्म और ज़रुरतें भी सिकुड़ती गईं
ऐसा नहीं कि कोई चाह नहीं
पर हर चाह को समेटना, रीत जो थी
मन की वीणा तोड़नी ही थी
मूँदी आँखो के सपने
जागती आँखों से मिटाने ही थे
क्या-क्या लेकर आए थे
क्या-क्या गँवाया
सारे हिसाब, मन में चुपचाप होते रहे 
कितने मौसम अपने, कितने आँसू ग़ैरों से
सारे क़िस्से, मन में चुपचाप कहते रहे 
साँसों की लय से
हर रोज़ गुज़ारिश होती- 
थम-थम के चल
बस अब, थम ही जा। 

- जेन्नी शबनम (2. 3. 2014)
___________________