मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

322. प्रेम (पुस्तक - 108)

प्रेम

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उचित-अनुचित और पाप-पुण्य की कसौटी पर 
तौली जाती है, प्रेम की परिभाषा,
पर प्रेम तो हर परिभाषा से परे है 
जिसका न रूप, न आकार 
बस महसूस करना ही एक मात्र 
प्रेम में होने की संतुष्ट व्याख्या है, 
प्रेम आदत नहीं 
जिससे अन्य आदतों की तरह 
छुटकारा पाया जाए 
ताकि जीवन जीने में सुविधा हो, 
प्रेम सोमरस भी नहीं 
जिसे सिर्फ़ देवता ही ग्रहण करें 
क्योंकि वो सर्वोच्च हैं 
और इसे पाने के अधिकारी भी मात्र वही हैं, 
प्रेम की परिधि में 
जीवन की स्वतंत्रता है 
जीने की और स्वयं के अनुभूति की, 
प्रेम स्वाभाविक है, प्रेम प्राकृत है 
आत्मा परमात्मा-सा कुछ 
जो जीवन के लिए उतना ही आवश्यक है 
जितना जीवित रहने के लिए प्राण-वायु, 
आकाश-सा विस्तार 
धरती-सी स्थिरता 
फूलों-सी कोमलता 
प्रेम का प्राथमिक परिचय है।   

- जेन्नी शबनम (14. 2. 2012)
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