मंगलवार, 3 नवंबर 2020

693. कपट

 कपट 

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हाँ कपट ही तो है   
सत्य से भागना, सत्य न कहना, पलायन करना   
पर यह भी सच है, सत्य की राह में   
बखेड़ों के मेले हैं, झमेलों के रेले हैं,   
कैसे कहे कोई सारे सत्य, जो दफ़न हो सीने में   
उम्र की थकान के, मन के अरमान के   
सदियों-सदियों से, युगों-युगों से,   
यूँ तो मिलते हैं कई मुसाफ़िर   
जो दो पल ठहर राज़ पूछते हैं, दम भर को अपना कहते हैं   
फिर चले जाते हैं, उम्मीद तोड़ जाते हैं, राह पे छोड़ जाते हैं   
काश! कोई तो थम जाता, छोड़ के न जाता   
मन की यायावरी को एक ठौर दे जाता,   
ये कपट, ये भटकाव मन को नहीं भाते हैं   
पर इनसे हम बच भी कहाँ पाते हैं   
यूँ हँसी में हर राज़ दफ़न हो जाते हैं   
फिर कहना क्या और पूछना क्या, सब बेमानी है   
और ऐसे ही बीत जाता है, सम्पूर्ण जीवन   
किसी की आस में, ठहराव की उम्मीद में,   
हम सब इसी राह के मुसाफ़िर, मत पूछो सत्य   
गर कोई जान न सके, बिन कहे पहचान न सके, यह उसकी कमी है,   
सत्य तो प्रगट है, कहा नहीं जाता, समझा जाता है   
फिर भी लोग इसरार करते हैं   
सत्य को शब्द न दें, हँसकर टाल दें, तो कपटी कहते हैं,   
ठीक ही कहते हैं वे, हम कपटी हैं   
कपटी!   

- जेन्नी शबनम (3. 11. 2020)
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