रविवार, 7 जनवरी 2018

565. धरातल (पुस्तक- नवधा)

धरातल  

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ग़ैरों की दास्ताँ क्यों सुनूँ?  
अपनी राह क्यों न बनाऊँ?  
जो पसन्द, बस वही क्यों न करूँ?  
दूसरों के कहे से जीवन क्यों जीऊँ?  
मुमकिन है ऐसे कई सवाल कौंधते हों तुममें  
मुमकिन है इनके जवाब भी हों तुम्हारे पास  
जो तुम्हारी नज़रों में सटीक है  
और सदैव जायज़ भी। 
 
परन्तु सवाल एक जगह ठहरकर  
अपने जवाब तलाश नहीं कर सकते  
न ही सवाल-जवाब के इर्द-गिर्द के अँधेरे   
रोशनी को पनाह देते हैं।
  
मुमकिन है मेरी तय राहें, तुम्हें व्यर्थ लगती हों  
मेरे जिए हुए सारे अनुभव  
तुम्हारे हिसाब से मेरी असफलता हो  
मेरी राहों पर बिछे फूल व काँटे  
मेरी विफलता सिद्ध करते हों। 
  
परन्तु एक सच है  
जिसे तुम्हें समझना ही होगा  
उन्हीं राहों से तुम्हें भी गुज़रना होगा  
जिन राहों पर चलकर मैंने मात खाई है। 
  
उन फूलों को चुनने की ख़्वाहिश तुम्हें भी होगी  
जिन फूलों की ख़्वाहिश में मुझे  
सदैव काँटों की चुभन मिली है। 
  
उन ख़्वाबों की फ़ेहरिस्त बनाना तुम्हें भी भाएगा  
जिन ख़्वाबों की लम्बी फ़ेहरिस्त  
अपूर्ण रही और आजीवन मेरी नींदों को डराती रही। 
 
दूसरों की जानी दिशाओं पर चलना  
व्यर्थ महसूस होता है  
दूसरों के अनुभव से जानना  
सन्देह पैदा करता है। 
  
परन्तु राह आसान हो  
सपने पल जाएँ और जीवन सहज हो  
तुम सुन लो वह सारी दास्तान  
जो मेरे जीवन की कहानी है। 
  
ताकि राह में तुम अटको नहीं, भटको नहीं  
सपने ठिठकें नहीं, जीवन सिमटे नहीं  
दूसरों के प्रश्न और उत्तर से ख़ुद के लिए 
उपयुक्त प्रश्न और उत्तर बनाओ  
ताकि धरातल पर जीवन की सुगन्ध फैले  
और तुम्हारा जीवन परिपूर्ण हो। 
 
जान लो  
सपने और जीवन  
यथार्थ के धरातल पर ही  
सफल होते हैं।  

-जेन्नी शबनम (7. 1. 2018)
(पुत्री की 18वीं जन्मतिथि)
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