बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

26. ख़ुदा की नाइंसाफ़ी

ख़ुदा की नाइंसाफ़ी

*******

ख़ुदा ने बनाए दो इंसान, औरत और मर्द दो ही जात
सब कुछ बाँटना था आधा-आधा, जी सकें प्यार से जीवन पूरा,
पर ख़ुदा भी तो मर्द जात था, नाइंसाफ़ी वो कर गया
सुख-दुःख के बँटवारे में, बेईमानी वो कर गया

जिस्म और ताक़त का मसला
क्यों उसके समझ से परे रहा?
औरत को जिस्म, जज़्बात और बुत बन जाने का नसीब दिया
मर्द को ताक़त, तक़दीर और हुकूमत करने का हक़ दिया

ऐ ख़ुदा! मर्द की इस दुनिया से बाहर निकल
ख़ुदा नहीं इंसान बनकर इस जहान को देख!

क्यों नहीं काँपती, रूह तुम्हारी?
जब तुम्हारी बसाई दुनिया की औरत बिलखती है,
युगों से तड़पती कराह रही है
ख़ामोशी से सिसकती ज़ख़्म सिल रही है

ऐ ख़ुदा! तुम मंदिर-मस्जिद-गिरिजा में बँटे, आराध्य बने बैठे हो
नासमझों की भीड़ में मूक बने, सदियों से तमाशा देखते हो!

क्या तुम्हें दर्द नहीं होता?
जब अजन्मी कन्या मरती है
जब नई ब्याहता जलती है
जब नारी की लाज उघड़ती है
जब स्त्री की दुनिया उजड़ती है
जब औरत सावालों की ज़िन्दगी से घबराकर
मौत को गले लगाती है

ऐ ख़ुदा! मैं मग़रूर ठहरी, नहीं पूजती तुमको
तो मेरी न सुनो, कोई बात नहीं 
उनकी तो सुनो
जो तुमसे आस लगाए, युगों से पूजते हैं
तुम्हारे सज्दे में करोड़ों सिर झुके हैं
जो तुम्हारे अस्तित्व की रक्षा में, जान लेते और गँवाते हैं

ऐ ख़ुदा! क्या तुम संवेदन-शून्य हो या अस्तित्वहीन हो?
तुम्हारी आस्था में लोग भ्रमित और चेतना-विहीन हो गए हैं
क्या समझूँ, किसे समझाऊँ, किसी को कैसे कराऊँ 
तुम्हारे पक्षपात और निरंकुशता का भान!

मेरे मन का द्वंद्व दूर हुआ, समझ गई तुम्हारा रूप
तुम कोई उद्धारक नहीं, और न हो शक्ति के अवतार
धर्म-ग्रंथों के हो तुम
बस पात्र मात्र!

- जेन्नी शबनम (7. 9. 2008)
________________________________________

25. अधूरी कविता

अधूरी कविता

*******

तुम कहते -
सुनाओ कुछ अपनी कविता,
कैसे कहूँ
अब होती नहीं पूरी, मेरी कविता

अधूरी कविता अब बन गई ज़िन्दगी
जैसे अटक गए हों लफ़्ज़ ज़ुबाँ पे,
उलझी-उलझी बातें हैं
कुछ अनकहे अफ़साने हैं
दर्द के गीत और पथरीली राहें हैं

तुम क्या करोगे सुन मेरी कविता?
क्या जोड़ोगे कुछ अल्फ़ाज़ नए
ताकि कर सको पूरी, मेरी कविता

तुम वो दर्द कहाँ ढूँढ़ पाओगे?
तुम बे-इंतिहा प्रेम की प्यास कैसे जगाओगे?
अपनी आँखों से मेरी दुनिया कैसे देखोगे?
मेरी ज़िन्दगी का एहसास कहाँ कर पाओगे?

ज़िद करते हो
तो सुन लो, मेरी आधी कविता
ज़िद ना करो
पढ़ लो, आधी ही कविता

गर समझ सको ज़रा भी तुम
मेरी आधी-अधूरी कविता,
वाह-वाही के शब्द, न वारना मुझ पर
ज़ख़्मों को मेरे, यूँ न उभारना मुझ पर

पलभर को मेरी रूह में समा
पूर्ण कर दो मेरी कविता
तुम जानते तो हो
मेरी अधूरी ज़िन्दगी ही है
मेरी अधूरी कविता

- जेन्नी शबनम (4. 9. 2008)
______________________________

24. थक गई मैं

थक गई मैं

*******

वादा किया उसने 
उम्रभर साथ निभाने का 
लम्हों का सफ़र और रुसवा हो गया वो
जाने वादाखिलाफ़ी थी या अंत क़रीब मेरा
डर गया था वो

एक पाँव जीवन की दहलीज़ पर
दूसरा पाँव मौत की सरहद पर 
आज साथ सफ़र ख़त्म करती अपना

जीकर मौत का सफ़र देखा, शुक्रिया ख़ुदा!
अब तो जीने-मरने के खेल से उबार मुझे, ओ ख़ुदा!

ओ ख़ुदाया! तुम्हारे साथ सारे युग घुम आई
मैं तो थक गई, जाने तू क्यों न थका?

एक बार मेरी आत्मा में समा
और मेरी नज़र से देख
तू सहम न गया तो
ऐ ख़ुदा! तेरी क़सम
एक और जन्म क़ुबूल हमें !

- जेन्नी शबनम (3. 9. 2008)
_________________________________

23. रात का नाता मुझसे

रात का नाता मुझसे

*******

मेरी कराह का नाता है
रातों से, जाने कितना गहरा
ख़ामोशी से सुनती और साथ मेरे जागती है

हौले से थाम मेरी बाहें
सुबह होने तक, साथ मेरे रोती है
आँसुओं से तर मेरी रूह को
रात अपने आगोश में पनाह देती है
कभी थपकी दे
ख़ुद जाग, हमें सुला देती है
मेरी दास्ताँ
रात अपने अँधियारे में छुपा लेती है

जाने ये कैसा नाता है?
क्यों वो इतने क़रीब है ?
रात की बाँहों में कहीं चाँदनी
कहीं लाखों सितारे
फिर क्यों, बिसरा कर ये रूहानी बातें
संग आ जाती मेरे मातम में, ये रातें

कुछ तो गहरा नाता है
मेरी तरह वो भी पनाह ढूँढ़ती शायद
मेरी तरह अकेली उदास शायद
इसी लिए एक दूसरे को ढाढ़स देने
रोज़ चुपके से आ जाती रातें
मिल बाँट दुःख-दर्द अपना
बसर होती संग रातें

रात का नाता मुझसे
सुबह की किरणों संग
हँसना है

- जेन्नी शबनम (2. 9. 2008)
_____________________________

22. मुहब्बत! पहला लफ़्ज़

मुहब्बत! पहला लफ़्ज़

*******

मुहब्बत ही था पहला लफ़्ज़, जो कहा तुमने   
अजनबी थे, जब पहली ही बार हम मिले थे।   
कुछ भी साथ नहीं, क्षत-विक्षत मन था   
जाने कब-कब, कहाँ-कहाँ, किसने तोड़ा था।   
सारे टुकड़ों को, उस दिन से समेट रही   
आख़िर किस टुकड़े से कहा था तुमने, सोच रही।   
रावण के सिर-सा, मेरे मन का टुकड़ा   
बढ़ता जा रहा, फैलता जा रहा।   
अपने एक साबुत मन को, तलाशने में   
जिस्म और वक़्त थकता जा रहा।   
तुम्हीं ढूँढ़ दो न, मैं कैसे पहचानूँ?   
ख़ुद को भी भूल चुकी, अब मैं क्या करूँ?   
तुम्हें तो पहचान होगी न उसकी   
तुम्हीं ने तो देखा था उसे पहली बार।   
हज़ारों में से एक को पहचाना था तुमने   
तभी तो कहा था तुमने   
मुहब्बत का लफ़्ज़, पहली बार।

- जेन्नी शबनम (24. 2. 2009)
_________________________________________