इतनी-सी बात इतनी-सी फ़िक्र
*******
दो चार फ़िक्र हैं जीवन के
मिले गर कोई राह, चले जाओ
बेफ़िक्री लौटा लाओ
कह तो दिया कि दूर जाओ
निदान के लिए सपने न देखो
राह पर बढ़ो, बढ़ते चले जाओ
वहाँ तक जहाँ पृथ्वी का अंत है
वहाँ तक जहाँ कोई दुष्ट है या संत है
बस इंसान नहीं है, प्यार से कोई पहचान नहीं है
या वहाँ जहाँ क्षितिज पर आकाश से मिलती है धरा
या वहाँ जहाँ गुम हो जाए पहचान, न हो कोई अपना
मत सोचो देस परदेस
भूल जाओ सब तीज-त्योहार
बिसरा दो सब प्यार-दुलार
लौट न पाओ कभी
मिल न पाओ अपनों से कभी
यह पीर मन में बसाकर रखना
पर हिम्मत कभी न हारना
यायावर-सा न भटकना तुम
दिग्भ्रमित न होना तुम
अकारण और नहीं रोना तुम
एक ठोस ठौर ढूँढकर
सपनों में हमको सजा लेना
मन में लेकर अपनों की यादें
पूरी करना बुनियादी ज़रूरतें
आस तो रहेगी तुम्हें
अपने उपवन की झलक पाने की
कुटुम्बों संग जीवन बीताने की
वंशबेल को देखने की
प्रियतमा के संग-साथ की
मिलन की किसी रात की
पर समय की दरकार है
तक़दीर की यही पुकार है
कोई उम्मीद नहीं कोई आस नहीं
किसी पल पर कोई विश्वास नहीं
रहा सहा सब पिछले जन्म का भाग्य है
इस जनम का इतना ही इंतज़ाम है
बाकी सब अगले जन्म का ख़्वाब है
निपट जाए जीवन-भँवर
बस इतना ही हिसाब है
चार दिन का जीवन
दो जून की रोटी
बदन पर दो टुक चीर
फूस का अक्षत छप्पर
बस इतनी-सी दरकार है
बस इतनी-सी तो बात है।
- जेन्नी शबनम (7. 7. 2020)
____________________