धृष्टता...
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ख्वाहिशों ने जन्म लिया मुझमें
जिन्हें यकीनन पूरा नहीं होना था
मगर दिल कब मानता है...
यह समझती थी
तुम अपने दायरे से बाहर न आओगे
फिर भी एक नज़र देखने की आरज़ू
और चुपके से तुम्हें देख लेती
नज़रें मिलाने से डरती
जाने क्यों खींचती हैं तुम्हारी नज़रें
अब भी याद है
मेरी कविता पढ़ते हुए
उसमें ख़ुद को खोजने लगे थे तुम
अपनी चोरी पकड़े जाने के डर से
तपाक से कह उठी मैं
''पात्र को न खोजना''
फिर भी तुमने ख़ुद को
खोज ही लिया उसमें
मेरी इस धृष्टता पर
मुस्कुरा उठे तुम
और चुपके से बोले
''प्रेम को बचा कर नहीं रखो !''
तुम अपने दायरे से बाहर न आओगे
फिर भी एक नज़र देखने की आरज़ू
और चुपके से तुम्हें देख लेती
नज़रें मिलाने से डरती
जाने क्यों खींचती हैं तुम्हारी नज़रें
अब भी याद है
मेरी कविता पढ़ते हुए
उसमें ख़ुद को खोजने लगे थे तुम
अपनी चोरी पकड़े जाने के डर से
तपाक से कह उठी मैं
''पात्र को न खोजना''
फिर भी तुमने ख़ुद को
खोज ही लिया उसमें
मेरी इस धृष्टता पर
मुस्कुरा उठे तुम
और चुपके से बोले
''प्रेम को बचा कर नहीं रखो !''
मैं कहना चाहती थी -
बचाना ही कब चाहती हूँ
तुम मिले जो न थे
तो खर्च कैसे करती
बचाना ही कब चाहती हूँ
तुम मिले जो न थे
तो खर्च कैसे करती
पर... कह पाना कठिन था
शायद जीने से भी ज्यादा
अब भी जानती हूँ
अब भी जानती हूँ
महज़ शब्दों से गढ़े पात्र में
तुम ख़ुद को देखते हो
तुम ख़ुद को देखते हो
और बस इतना ही चाहते भी हो
उन शब्दों में जीती मैं को
उन शब्दों में जीती मैं को
तुमने कभी नहीं देखा
या देखना ही नहीं चाहा
बस कहने को कह दिया था
फिर भी एक सुकून है
मेरी कविता का पात्र
एक बार अपने दायरे से बाहर आ
कुछ लम्हे दे गया था मुझे !
फिर भी एक सुकून है
मेरी कविता का पात्र
एक बार अपने दायरे से बाहर आ
कुछ लम्हे दे गया था मुझे !
- जेन्नी शबनम (26. 2. 2015)
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