संतान की आहुति...
(यह कोई कविता नही है, बस यूँ ही सोचने के लिए प्रेषित एक लेखनी है
। परिवार द्वारा अपनी संतान का कत्ल कर देना क्योंकि उसने प्रेम करने का गुनाह किया
। मनचाही ज़िन्दगी जीने की सज़ा क्या इतनी क्रूरता होती है ? प्रेम पाप हो चुका शायद, तो कोई ईश्वर से भी प्रेम न करे !)
*******
प्रेम के नाम पे आहुति दी जाती
प्रेम के लिए बलि चढ़ती,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि
वो वही संतान है, जो मुरादों से मिली
एक माँ के खून से पनपी
प्रेम की एक दिव्य निशानी है
।
एक आँसू न आए हज़ार जतन किए जाते
हर ख़्वाहिश पे दम भर लुटाए जाते
दुनिया की खुशी वारी जाती
एक हँसी पे सब कुर्बान होते
।
गर संतान अपनी मर्ज़ी से जीना चाहे
अपनी सोच से दुनिया देखे
अपनी पहचान की लगन लगे
अपने ख़्वाब पूरा करने को हो प्रतिबद्ध
फ़िर वही संतान बेमुराद हो जाती
जो दुआ थी कभी अब बददुआ पाती
घर का चिराग कलंक कहलाता
चाहे दुनिया वो रौशन करता
।
इन्तेहा तो तब जब
मनचाहा साथी की ख़्वाहिश
पूरी करती संतान
।
समान जाति तो फ़िर भी कुबूल
संस्कारों से ढाँप, जगहँसाई से राहत देता परिवार
पर तमाम उम्र जिल्लत और नफ़रत पाती संतान
।
गैर जाति में मिल जाए जो मन का मीत
घर से तिरस्कृत और बहिष्कृत कर देता परिवार
अपनों के प्यार से आजीवन महरूम हो जाती संतान
।
धर्म से बाहर जो मिल जाए किसी को अपना प्यार
मानवता की सारी हदों से गुज़र जाता परिवार
।
कथित आधुनिक परिवार हो अगर
इतना तो संतान पे होता उपकार
रिश्तों से बेदख़ल और जान बख्श का मिलता वरदान
।
खानदानी-धार्मिक का अभिमान, करे जो परिवार
इतना बड़ा अनर्थ... कैसे मिटे कलंक...
दे संतान की आहुति, बचा ली अपनी भक्ति
।
हर खुशी पूरी करते, जीवन की खुशी पे बलि चढ़ाते
इज्ज़त की गुहार लगाते, संतान के खून से अपनी इज्ज़त बचाते,
प्रेम से है प्रतिष्ठा जाती, हत्यारा कहलाने से है प्रतिष्ठा बढ़ती
जाने कैसा संस्कारों का है खेल, प्रेम को मिटा गर्वान्वित हैं होते
।
- जेन्नी शबनम (नवम्बर 8, 2008)
_______________________________________________________