आईने का भरोसा क्यों...
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प्रतिबिम्ब अपना-सा दिखता नहीं
फिर बार-बार क्यों देखना,
आईने को तोड़
निकल आओ बाहर
किसी भी मौसम को
आईने के शिनाख्त की ज़रूरत नहीं,
कौन जानना चाहता है
क्या-क्या बदलाव हुए?
क्यों हुए?
वक्त की मार थी
या अपना ही साया साथ छोड़ गया
किसने मन को तोड़ा
या सपनों को रौंद दिया,
आईने की गुलामी
किसने सिखाई?
क्यों सिखाई?
जैसे-जैसे वक़्त ने मिजाज़ बदले
तन बदलता रहा
मौसम की अफरातफरी
मन की गुज़ारिश नहीं थी,
फिर
आईने का भरोसा क्यों?
- जेन्नी शबनम (जून 1, 2012)
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