शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

462. चकरघिन्नी (क्षणिका)

चकरघिन्नी

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चकरघिन्नी-सी घूमती-घूमती 
ज़िन्दगी जाने किधर चल पड़ती है
सब कुछ वही, वैसे ही 
जैसे ठहरा हुआ-सा, मेरे वक़्त-सा  
पाँव में चक्र, जीवन में चक्र  
संतुलन बिगड़ता है  
मगर सब कुछ आधारहीन निरर्थक भी तो नहीं   
आख़िर कभी न कभी, कहीं न कहीं
ज़िन्दगी रुक ही जाती है। 

- जेन्नी शबनम (11. 7. 2014)
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