मेरी ज़िन्दगी...
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ज़िन्दगी मेरी, कई रूप में
सामने आती है,
ज़िन्दगी को पकड़ सकूँ
दौड़ती हूँ, भागती हूँ, झपटती हूँ,
साबूत न सही
कुछ हिस्से तो पा लूँ ।
हर बार ज़िन्दगी हँस कर
छुप जाती है,
कभी यूँ भाग जाती
जैसे मुँह चिढ़ा रही हो,
कभी कुछ हिस्से नोच भी लूँ
तो मुट्ठी से फिसल जाती है ।
जाने जीने का शऊर नहीं मुझको
या हथेली छोटी पड़ जाती है,
न पकड़ पाती, न सँभल पाती
मुझसे मेरी ज़िन्दगी ।
- जेन्नी शबनम (जुलाई 18, 2009)
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ज़िन्दगी मेरी, कई रूप में
सामने आती है,
ज़िन्दगी को पकड़ सकूँ
दौड़ती हूँ, भागती हूँ, झपटती हूँ,
साबूत न सही
कुछ हिस्से तो पा लूँ ।
हर बार ज़िन्दगी हँस कर
छुप जाती है,
कभी यूँ भाग जाती
जैसे मुँह चिढ़ा रही हो,
कभी कुछ हिस्से नोच भी लूँ
तो मुट्ठी से फिसल जाती है ।
जाने जीने का शऊर नहीं मुझको
या हथेली छोटी पड़ जाती है,
न पकड़ पाती, न सँभल पाती
मुझसे मेरी ज़िन्दगी ।
- जेन्नी शबनम (जुलाई 18, 2009)
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