शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

185. किसी बोल ने चीर तड़पाया (तुकांत)

किसी बोल ने चीर तड़पाया

*******

पोर-पोर में पीर समाया
किसने है ये तीर चुभाया  

मन का हाल नहीं पूछा और
पूछा किसने धीर चुराया  

गूँगी इच्छा का मोल ही क्या
गंगा का बस नीर बताया  

नहीं कभी कोई राँझा उसका
फिर भी सबने हीर बुलाया 

न भूली शब्दों की भाषा 'शब'
किसी बोल ने चीर तड़पाया 

- जेन्नी शबनम (29. 10. 2010)
______________________

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

184. पहला और आख़िरी वरदान

पहला और आख़िरी वरदान

*******

वह हठी ये क्या कर गया
विष माँगी मैं, वो अमृत चखा गया
एक बूंद अमृत, हलक में उतार गया
आह! ये कैसा ज़ुल्म कर गया!

उस दिन कहा था उसने- 
वक़्त को ललकारा तुमने
मृत्यु माँगी असमय तुमने
इसलिए है ये शाप-
सदा जीवित रहो तुम  
अमरता का है वरदान तुमको 

अब तो निर्भय जीवन
अविराम चलायमान जीवन
जीवित रहना है, जाने और कितनी सदी 
कभी नहीं होगी मृत्यु, कभी नहीं होगी मुक्ति
तड़प-तड़पकर जीना, शायद तब तक
जब तक नष्ट न हो, समस्त कायनात 

लाख करूँ प्रार्थना
नहीं होता कोई तोड़
चख भी लो जो अमृत
मुमकिन नहीं होना कभी मृत 

ख़ौफ़ बढ़ता जा रहा
ये मैंने क्या कर लिया?
क्यों उसके छल में आ गई?
क्यों चख लिया अमृत?
क्यों माँगा था विष?
क्यों वक़्त से पहले मृत्यु चाही?
क्यों? क्यों? क्यों?

जानती थी, वह देवदूत है
दे रहा मुझे पहला और आख़िरी वरदान है
फिर क्यों अपने लिए
ज़िन्दगी नहीं, मैंने मौत माँग ली 

माँगना था, तो प्रेमपूर्ण दुनिया माँगती
जबतक जियूँ बेफ़िक्र जियूँ
सभी अपनों का प्रेम पाऊँ
कहीं कोई दुखी न हो
सर्वत्र सुख हो, आनन्द हो 

चूक मेरी, भूल मेरी
ज़िन्दगी नहीं, मौत की चाह की
अब मौत नहीं बस जीना है
कोई न होगा मेरा, सब चले जाएँगे
मैं कभी शाप-मुक्त न होऊँगी
न शाप-मुक्त करने वाला कोई होगा 

- जेन्नी शबनम (28. 10. 2010)
______________________

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

183. देव

देव

*******

देव! देव! देव!
तुम कहाँ हो?
क्यों चले गए?
एक क्षण को न ठिठके 
तुम्हारे पाँव
अबोध शिशु पर 
क्या ममत्व न उमड़ा
क्या इतनी भी सुध नहीं
कैसे रहेगी ये अपूर्ण नारी
कैसे जिएगी
कैसे सहन करेगी संताप
अपनी व्यथा किससे कहेगी
शिशु जब जागेगा
उसके प्रश्नों का क्या उत्तर देगी
वो तो फिर भी बहल जाएगा
अपने निर्जीव खिलौनों में रम जाएगा 

बताओ न देव!
क्या कमी थी मुझमें
किस धर्म का पालन न किया
स्त्री का हर धर्म निभाया
तुम्हारे वंश को भी बढ़ाया
फिर क्यों देव!
यूँ छोड़ गए?
अपनी व्यथा अपनी पीड़ा
किससे कहूँ देव?
बीती हर रात्रि की याद
क्या नाग-सी न डसेगी
जब तुम बिन
ये अभागिन तड़पेगी?

जाना था चले जाते
मैं राह नहीं रोकती देव
बस जगाकर कहकर जाते
एक अंतिम आलिंगन
एक अंतिम प्रेम-शब्द
अंतिम बार तुमको छू तो लेती
एक अंतिम बार
अर्धांगनी तुम्हारी, तुमसे लिपट तो लेती
उन क्षणों के साथ
सम्पूर्ण जीवन सुख से जी लेती 

आह! देव!
एक बार बस
कहकर तो देखते
साथ चल देती
छोड़ सब कुछ संग तुम्हारे
तुम्हारी ही तरह
मैं भी बन जाती एक भिक्षुणी 

ओह! देव!
अब जो आओगे
मैं तुम्हारी प्रेम-प्रिया नहीं रहूँगी
न तुम आलिंगन करोगे
मैं अपनी पीड़ा में समाहित
एक अभागिन परित्यक्ता
तुम्हारे चरणों में लोटती
एक असहाय नारी 

संसार के लिए तुम
बन जाओगे महान
लेकिन नहीं समझ पाए
एक स्त्री की वेदना
चूक गए तुम, पुरुष धर्म से
सुन रहे हो न!
देव! देव! देव!

- जेन्नी शबनम (20. 10. 2010)
_______________________

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

182. नहीं होता अभिनन्दन (क्षणिका)/ nahin hota abhinandan (kshanikaa)

नहीं होता अभिनन्दन

*******

सहज जीवन मन का बंधन
पार होने की चाह निराशा और क्रंदन
अनवरत प्रयास विफलता और रुदन
असह्य प्रतिफल नहीं होता अभिनन्दन

- जेन्नी शबनम (15. 10. 2010)
_____________________

nahin hota abhinandan

*******

sahaj jivan mann ka bandhan
paar hone kee chaah niraasha aur krandan
anwarat prayaas vifalta aur rudan
asahya pratifal nahin hota abhinandan.

- Jenny Shabnam (15. 10. 2010)
__________________________

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

181. रूह का सफ़र

रूह का सफ़र

*******

इस जीवन के बाद
एक और जीवन की चाह,
रूहानी इश्क़ का ख्व़ाब
है न अजब यह ख़याल!

क्या पता क्या हो
रूह हो या कि सब समाप्त हो
कहीं ऐसा न हो
शरीर ख़त्म हो और रूह भी मिट जाए
या फिर ऐसा हो
शरीर नष्ट हो और रूह रह जाए
महज़ वायु समान,
एहसास तो मुक़म्मल हो
पर रूह बेअख़्तियार हो 

कैसी तड़प होगी, जब सब दिखे पर हों असमर्थ
सामने प्रियतम हो, पर हों छूने में विफल
कितनी छटपटाहट होगी
तड़प बढ़ेगी और रूह होगी विह्वल

बारिश हो और भींग न पाएँ
भूख हो और खा न पाएँ
इश्क़ हो और कह न पाएँ
जाने क्या-क्या न कर पाएँ

सशक्त शरीर, पर होते हम असफल
रूह तो यूँ भी होती है निर्बल
जो है अभी ही कर लें पूर्ण
किसी शायद पर नहीं यक़ीन सम्पूर्ण

फिर भी, जो न मिल सका
उम्मीद से जीवन सजा लें 
शायद हो इस जन्म के बाद
रूह के सफ़र की नयी शुरुआत

- जेन्नी शबनम (10. 10. 2010)
_________________________

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

180. अपने पाँव / apne paanv

अपने पाँव

*******

क्या बस इतना ही
और सब ख़त्म!
एक क़दम भी नहीं
और सफ़र का अंत!

उम्मीद नहीं अब चल पाऊँगी
पहुँच पाऊँगी दुनिया के उस
अंतिम छोर तक
जिसे निहारती रही अनवरत वर्षों
सोचती थी
कभी तो फ़ुर्सत मिलेगी
और जा पहुँचूँगी अपने पाँव से
वहाँ उस छोर पर
जहाँ सीमा समाप्त होती है
दुनिया की

अब नहीं जा सकूँगी कभी
बस निहारती रहूँगी
धुँधली नज़रों से
जहाँ तक भी जाए निगाह
चाहे समतल ज़मीन हो
या फिर स्वप्निल आकाश

क़दम तो न बढ़ेंगे
पर नज़र थम-थमकर
साफ़ हो जायेगी,
फिर शायद निहारूँ
उस जहाँ को
जहाँ कभी नहीं पहुँच सकूँगी
न चल सकूँगी कभी
अपने पाँव

- जेन्नी शबनम (8. 10. 2010)
_____________________

apne paanv

*******

kya bas itna hi
aur sab khatm!
ek kadam bhi nahin
aur safar ka ant!

ummid nahin ab chal paaungi
pahunch paaungi duniya ke us
antim chhor tak
jise niharati rahi anavarat varshon
sochti thee
kabhi to fursat milegi
aur ja pahunchungi apne paanv se
vahaan us chhor par
jahaan seema samaapt hotee hai
duniya kee.

ab nahin ja sakungi kabhi
bas nihaarti rahungi
dhundhli nazron se
jahaan tak bhi jaaye nigaah
chaahe samtal zameen ho
ya phir swapnil aakaash.

kadam to na badhenge
par nazar tham-tham kar
saaf ho jaayegi
fir shaayad nihaaroon
us jahaan ko
jahan kabhi nahi pahunch sakungi
na chal sakungi kabhi
apne paanv.

- Jenny Shabnam (8. 10. 2010)
__________________________

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

179. स्याह अँधेरों में न जाना तुम / syaah andheron mein na jana tum

स्याह अँधेरों में न जाना तुम

*******

वो कहता
जाने क्यों कहता?
स्याह अँधेरों में
न जाना तुम
उदासी कभी भी
न ओढ़ना तुम
भोर की लालिमा-सी
सदा दमकना तुम

कैसे समझाएँ?
क्या बतलाएँ?
उजाले से दिल कितना घबराता है
चेहरे की चुप्पी में
हर अनकहा दिख जाता है
ख़ुशी ठहरती नहीं
मन तो बहुत चाहता है

मैंने कोई वादा न किया
उसने कसम क्यों न दिया?
अब तय किया है
तक़दीर के किस्से
उजालों में दफ़न होंगे
दिल में हों अँधेरे मगर
क़तार दीयों के सजेंगे
उजाले ही उजाले चहुँ ओर
'शब' के अँधेरे
किसी को न दिखेंगे

- जेन्नी शबनम (21. 9. 2010)
_____________________

syaah andheron mein na jana tum

*******

wo kahta
jaane kyon kahta?
syaah andheron mein
na jana tum
udaasi kabhi bhi
na odhna tum
bhor ki laalima si
sada damakna tum.

kaise samjhaayen?
kya batlaayen?
ujaale se dil kitana ghabraata hai,
chehre ki chuppi mein
har ankaha dikh jata hai
khushi thaharti nahin
mann to bahut chaahta hai.

maine koi vada na kiya
usne kasam kyon na diya?
ab taye kiya hai
par taqdir ke kisse
ujaalon mein dafan honge
dil mein hon andhere magar
qataar diyon ke sajenge
ujaale hi ujaale chahun ore
'shab' ke andhere
kisi ko na dikhenge.

- Jenny Shabnam (21. 9. 2010)
_________________________