शनिवार, 8 मार्च 2014

445. किसे लानत भेजूँ

किसे लानत भेजूँ

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किस एहसास को जीऊँ आज?
ख़ुद को बधाई दूँ 
या लानत भेजूँ उन सबको 
जो औरत होने पर गुमान करती हैं  
और सबसे छुपकर हर रोज़ 
पलायन के नए-नए तरीक़े सोचती हैं 
जिससे हो सके जीवन का सुनिश्चित अन्त  
जो आज ख़ुद के लिए तोहफ़े खरीदती हैं 
और बड़े नाज़ से 
आज काम न करने का हक़ जताती हैं। 
  
कभी अधिकार के लिए हुए जंग में     
औरतों को मिला एक दिन हक़ में    
दुनिया की हुकूमतों ने  
एक दिन हम औरतों के नाम कर  
मुट्ठी में कर ली हमारी आज़ादी
हम औरतें हार गईं
हमारी क़ौम हार गई 
एक दिन के नाम पर 
हमारी साँसें छीन ली गईं। 

किसे लानत भेजूँ?
मैं ख़ुद को लानत भेजती हूँ 
क्यों लगाती हूँ गुहार 
एक दिन हम औरतों के लिए 
जबकि जानती हूँ 
आज भी कितनी स्त्रियों का जिस्म 
लूटेगा, पिटेगा, जलेगा, कटेगा  
गुप्तांगों को चीरकर 
कोई हैवान रक्त-पान करेगा
चीख निकले तो ज़ुबान काट दी जाएगी 
और बदन के टुकड़े 
कचरे के ढेर पर मिलेगा।  

धोखे से बच्चियों को कोठे पर बेचा जाएगा 
जहाँ उसका जिस्म ही नहीं मन भी हारेगा 
वह अबोध समझ भी न पाएगी
यह क्या हो रहा है 
क्यों उसकी क़िस्मत में दर्द ही दर्द लिखा है?

बस एक दिन का जश्न 
फिर एक साल का प्रश्न 
जिसका नहीं है कोई जवाब 
न हमारे पास 
न हुक्मरानों के पास।  

सब जानते हुए भी हम औरतें 
हम औरतें जश्न मनाती हैं  
बस एक दिन ही सही 
हम ग़ुलाम औरतों के नाम।  

- जेन्नी शबनम (मार्च 8, 2014)
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर)
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