मंगलवार, 6 सितंबर 2011

280. जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ

जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ

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मन में कुछ दरक-सा जाता है
जब क्षितिज पर अस्त होता सूरज देखती हूँ
ज़िन्दगी बार-बार डराती है
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ। 

सपने ध्वस्त हो रहे हैं 
हवा मेरी सारी निशानियाँ मिटा रही है
वुजूद घुटता-सा है
ज़ेहन में मवाद की तरह यादें रिसती हैं
अपेक्षाओं की मुराद दम तोड़ती है
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ। 

सहेजे सपनों की विफलता का मलाल
धराशायी अरमान
मन की विक्षिप्तता
असह्य हो रहा अब ये संताप
मन डर जाता है जीवन के इस रीत से
जब भी तन्हा ख़ुद को पाती हूँ। 

हूँ अब ख़ामोश
मूक-बधिर
निहार रही अपने जीवन का
अरूप अवशेष। 

- जेन्नी शबनम (11. 9. 2008)
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