रविवार, 24 अप्रैल 2011

234. चाँद के होठों की कशिश

चाँद के होठों की कशिश

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चाँद के होठों में जाने क्या कशिश है
सम्मोहित हो जाता है मन
एक जादू-सा असर है
मचल जाता है मन
अँधेरी रात में हौले-हौले
क़दम-क़दम चलते हुए
चाँदनी रात में चुपचाप निहारते हुए
जाने कैसा तूफ़ान आ जाता है
समुद्र में ज्वार भाटा उठता है जैसे
ऐसा ही कुछ-कुछ हो जाता है मन 
कहते हैं चाँद की तासीर ठंडी होती है
फिर कहाँ से आती है इतनी ऊष्णता
जो बदन को धीमे-धीमे
पिघलाती है
फिर भी सुकून पाता है मन
उसकी चाँदनी या चुप्पी
जाने कैसे मन में समाती है
नहीं मालूम ज़िन्दगी मिलती है
या कहीं कुछ भस्म होता है
फिर भी चाँद के संग
घुल जाना चाहता है मन

- जेन्नी शबनम (23. 4. 2011)
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