अब तो जो बचा है...
दो राय नहीं
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अब तक कुछ नहीं बदला था
न बदला है
न बदलेगा,
सभ्यता का उदय
और संस्कार की प्रथाएँ
युग परिवर्तन और उसकी कथाएँ
आज़ादी का जंग और वीरता की गाथाएँ
एक-एक कर सब बेमानी
शिक्षा-संस्कार-संस्कृति
घर-घर में दफ़न,
क्रान्ति-गीत
क्रान्ति की बातें
धर्म-वचन
धार्मिक-प्रवचन
जैसे भूखे भेड़ियों ने खा लिए
और उनकी लाश को
मंदिर मस्जिद पर लटका दिया,
सामाजिक व्यवस्थाएँ
जो कभी व्यवस्थित हुई ही नहीं
सामाजिक मान्यताएँ
चरमरा गई
नैतिकता
जाने किस सदी की बात थी
जिसने शायद किसी पीर के मज़ार पर
दम तोड़ दिया था,
कमजोर क़ानून
खुद ही जैसे हथकड़ी पहन खड़ा है
अपनी बारी की प्रतीक्षा में
और कहता फिर रहा है
आओ और मुझे लूटो खसोटो
मैं भी कमजोर हूँ
उन स्त्रियों की तरह
जिन पर बल प्रयोग किया गया
और दुनिया गवाह है
सज़ा भी स्त्री ने ही पाई,
भरोसा
अपनी ही आग में लिपटा पड़ा है
बेहतर है वो जल ही जाए
उनकी तरह जो हार कर खुद को मिटा लिए
क्योंकि उम्मीद का एक भी सिरा न बचा था
न जीने के लिए
न लड़ने के लिए,
निश्चित ही
पुरुषार्थ की बातें
रावण के साथ ही ख़त्म हो गई
जिसने छल तो किया
लेकिन अधर्मी नहीं बना
एक स्त्री का मान तो रखा,
अब तो जो बचा है
विद्रूप अतीत
विक्षिप्त वर्तमान
और
लहुलुहान भविष्य
और इन सबों की साक्षी
हमारी मरी हुई आत्मा !
- जेन्नी शबनम (24. 4. 2013)
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