सोमवार, 20 जनवरी 2014

437. पूर्ण विराम (क्षणिका)

पूर्ण विराम

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एक पूरा वजूद, धीमे-धीमे जलकर 
राख़ में बदलके चेतावनी देता- 
यही है अंत, सबका अंत
मुफ़लिसी में जियो या करोड़ों बनाओ
चरित्र गँवाओ या तमाम साँसें लिख दो 
इंसानियत के नाम
बस यही पूर्ण विराम, यही है पूर्ण विराम। 

- जेन्नी शबनम (20. 1. 2014)
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15 टिप्‍पणियां:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बेहद सटीक बात....
बहुत सुन्दर रचना.

अनु

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (21-01-2014) को "अपनी परेशानी मुझे दे दो" (चर्चा मंच-1499) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

शायद जीवन का यही सत्य कटूक्ति!

Ranjana verma ने कहा…

अंत में राख में बदलता वजूद ही पूर्णविराम है..!!!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/01/blog-post_21.html

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

एक कड़वा सच!! आज का सच!!!

Aditya Tikku ने कहा…

jiwan ka saty

kavita - utam -***

Aditya Tikku ने कहा…

ek matr sach

utam- ***

Sadhana Vaid ने कहा…

चंद शब्दों में ही जीवन के सार को बड़े प्रभावी ढंग से निचोड़ दिया आपने अपनी रचना में ! आभार एवं शुभकामनायें !

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

एज यूजवल! बेहतरीन !!

Anita ने कहा…

जीवन का यह सत्य हमें हर पल को सजगता के साथ जीना सिखाता है..

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच लिखा है .. कोरा सपाट सच ...

Anupama Tripathi ने कहा…

गहन भाव ...यथार्थ कहती बेहतरीन पंक्तियाँ ....!!

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

सत्य को कहती बेहतरीन रचना...

Unknown ने कहा…

ati sundar bhav prawah