शनिवार, 4 जून 2011

249. कोई और लिख गया (तुकांत)

कोई और लिख गया

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वक़्त के साथ मैं तो चलती रही
वक़्त ने जब जो कहा करती रही। 

क्या जानूँ क्या है जीने का फ़लसफ़ा
बेवजह-सी हवाओं में साँस लेती रही। 

मरघट-सी वीरानी थी हर जगह
और मैं ज़िन्दगी को तलाशती रही। 

जाने कौन दे रहा आवाज़ मुझको
मैं तो बेगानों के बीच जीती रही। 

कोई मिला राह में गुज़रते हुए कल
डरती झिझकती मैं साथ बढ़ती रही। 

कोई और लिख गया कहानी मेरी
मैं जाने क्या समझी और पढ़ती रही। 

जिसने चाहा मढ़ दिया गुनाह बेदर्दी से
'शब' हँसकर गुनाह क़ुबूल करती रही। 

- जेन्नी शबनम (4. 06. 2011)
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7 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

बहुत उम्दा रचना।

विभूति" ने कहा…

bhut bhutb khubsurat bhaavanye...bhut hi sarthak abhivaykti...

Udan Tashtari ने कहा…

क्या बात है, बढ़िया.

सहज साहित्य ने कहा…

जिसने चाहा मढ़ दिया गुनाह बेदर्दी से
''शब'' हंसकर गुनाह कबूल करती रही! आपकी हर कविता दर्द की नदिया में डुबकी जगाती नज़र आती है। लगता है अच्छे आदमियों को समझने की चेष्टा कम ही लोग करते हैं। आपने करोड़ों दिलों की व्यथा का बहुत ही मार्मिक चित्र खींचा है । आपकी यह कविता मन-प्राण को सींचती है। मेरे पास तो इतने कारगर शब्द नहीं है, जो सही व्याख्या कर सकूँ । बस आत्मा से महसूस कर सकता हूँ आपकी भावप्रवणता को ।

Richa P Madhwani ने कहा…

http;//shayaridays.blogspot.com

Jyoti Mishra ने कहा…

lovely !!

***Punam*** ने कहा…

"वक़्त के साथ मैं तो चलती रही
वक़्त ने जब जो कहा करती रही!
क्या जानूं क्या है जीने का फलसफा
बेवजह सी हवाओं में सांस लेती रही!
मरघट सी वीरानी थी हर जगह
और मैं ज़िंदगी को तलाशती रही!
जाने कौन दे रहा आवाज़ मुझको
मैं तो बेगानों के बीच जीती रही!"

और इसी तरह जीने में
कभी कभी इंसान
खुद को पा जाता है..!
फिर न ज़रुरत होती है
किसी अपने की...
न ही बेगाने का ही
इंतज़ार होता है...!!

खूबसूरत एहसास...