क्या बिगड़ जाएगा
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मन में धुक-धुकी समा जाती है
सब ठीक तो होगा न
कोई मुसीबत तो न आई होगी
कहीं कुछ ग़लत-सलत न हो जाए
इतनी देर, कोई अनहोनी तो नहीं हो गई
बार-बार कलाई की घड़ी पर नज़र
फिर दीवार घड़ी पर
घड़ी ने वक़्त ठीक तो बताया है न
या घड़ी खराब तो नहीं हो गई
हे प्रभु!
रक्षा करना, किसी संकट में न डालना
कभी कोई ग़लती हुई हो तो क्षमा करना
वक़्त पर लौट आने से क्या चला जाता है?
कोई सुनता क्यों नहीं?
दिन में जितनी मनमर्ज़ी कर लो
शाम के बाद सीधे घर
आख़िर यह घर है, कोई होटल नहीं
कभी घड़ी पर निगाहें
कभी मुख्य द्वार पर नज़र
फिर बालकनी पर चहलक़दमी
सिर्फ़ मुझे ही फ़िक्र क्यों?
सब तो अपने में मगन हैं
कमबख़्त टी. वी. देखना भी नहीं सुहाता है
जब तक सब सकुशल वापस न आ जाए।
बार-बार टोकना
किसी को नहीं भाता है
मगर आदत जो पड़ गई है
उस ज़माने से ही
जब हमें टोका जाता था
और हमें भी बड़ी झल्लाहट होती थी
फिर धीरे-धीरे आदत पड़ी
और वक़्त की पाबंदी को अपनाना पड़ा था
पर कितना तो मन होता था तब
कि सबकी तरह थोड़ी-सी चकल्लस कर ली जाए
ज़रा-सी मस्ती
ज़रा-सी अल्हड़ता
ज़रा-सी दीवानगी
ज़रा-सी शैतानी
ज़रा-सी तो शाम हुई है
क्या बिगड़ जाएगा
पर अब
सब आने लगा समझ में
फ़िक्रमंद होना भी लत की तरह है
जानते हुए कि कुछ नहीं कर सकते
जो होना है होकर ही रहता है
न घड़ी की सूई, न बालकोनी, न दरवाज़े की घंटी
मेरे हाँ में हाँ मिलाएगी
फिर भी आदत जो है।
- जेन्नी शबनम (30. 9. 2013)
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8 टिप्पणियां:
सुंदर रचना |
मेरी नई रचना :- जख्मों का हिसाब (दर्द भरी हास्य कविता)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (01-10-2013) मंगलवारीय चर्चा 1400 --एक सुखद यादगार में "मयंक का कोना" पर भी है!
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया,सुंदर सृजन !
RECENT POST : मर्ज जो अच्छा नहीं होता.
आपके इस तरह के अनुभव और अभिव्यक्ति को अपनी भावनाओं के बहुत करीब पाता हूँ । आपकी कविताओं की नई भावभूमि हर पाठक की बात करती है। आपकी लेखनी इसी तरह गतिशील रहे , यही भाई की कामना है।
आपकी रचना ही कुछ ऐसी है कि ...
सच ही तो है ....घडी अपनी राह जाती जायेगी
बालकनी आसमान को ताकती मुस्कुरायेगी
खिड़की खामोशी से सलाखों को सहलायेगी
दरवाज़े की घंटी बिन-दबाए कहाँ बज पायेगी
सब जानते भी ....
मन की आँच ख्यालों की खिचड़ी पकायेगी
मेरी हर साँझ यूँ ही ड़री-सहमी हुई आयेगी
बहुत ही बढ़िया,सुंदर सृजन !
RECENT POST : मर्ज जो अच्छा नहीं होता.
सच कहा है आदत नहीं छूटती ... फिर जो होना है वो तो होगा ही ... पर फिर भी मन है की मानता नहीं ...
बहुत खूबसूरत रचना....
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