शुक्रवार, 27 मार्च 2009

44. हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी बेकार है पड़ी (पुस्तक - लम्हों का सफ़र - 103)

हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी बेकार है पड़ी

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हँसी बेकार पड़ी है, यूँ ही कोने में कहीं
ख़ुशी ग़मगीन रखी है, ज़ीने में कहीं
ज़िन्दगी गुमसुम खड़ी है, अँगने में कहीं,
अपने इस्तेमाल की आस लगाए
ठिठके सहमे से हैं सभी

सब कहते, सच ही कहते
कंजूस हैं हम, कायर हैं हम
सहेज सँभाल रखते, ख़र्च नहीं करते हम
अपनी हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी

हमने सोचा था
जब ज़रूरत हो, इस्तेमाल कर लेंगे
वरना सँभाल रखेंगे, जन्म-जन्मांतर तक
कहीं ख़र्च न हो जाए, फ़िजूल ये सभी

आज ज़रूरत पड़ी
चाहा कि सब उठा लाएँ
डूब जाएँ उसमें, ख़ूब जी जाएँ

पर ये क्या हुआ?
हँसी रूठ गई, ख़ुशी डर गई
ज़िन्दगी मुरझा गई, सब बेकाम हो गई
बेइस्तेमाल स्वतः नष्ट हो गई

सचमुच, हम कायर हैं, कंजूस हैं
यूँ ही पड़े-पड़े बर्बाद हो गई
हमारी हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी

अब जाना, संरक्षित नहीं होती
न ही सदियाँ ठहरती हैं
हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी
सहेजते, सँभालते और सँजोते
सब विदा हो रही!

जब वक़्त था तो जिया नहीं
अब चाहा तो कुछ बचा नहीं,
हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी
यूँ ही बेकार, अब है पड़ी

- जेन्नी शबनम (जून 2006)
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