रचती हूँ अपनी कविता
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दर्द का आलम यूँ ही नहीं होता लिखना
ज़ख़्म को नासूर बना होता है दर्द जीना
कैसे कहूँ, कब किसके दर्द को जिया
या अपने ही ज़ख़्म को छील, नासूर बनाया
ज़िन्दगी हो या कि मन की परम अवस्था
स्वयं में पूर्ण समा, फिर रचती हूँ अपनी कविता।
- जेन्नी शबनम - (12. 11. 2010)
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दर्द का आलम यूँ ही नहीं होता लिखना
ज़ख़्म को नासूर बना होता है दर्द जीना
कैसे कहूँ, कब किसके दर्द को जिया
या अपने ही ज़ख़्म को छील, नासूर बनाया
ज़िन्दगी हो या कि मन की परम अवस्था
स्वयं में पूर्ण समा, फिर रचती हूँ अपनी कविता।
- जेन्नी शबनम - (12. 11. 2010)
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4 टिप्पणियां:
जेन्नी शबनम जी ,
आखिर इस दर्द का जन्म कहाँ होता है ? यह एक शाश्वत प्रश्न है । मैं तो अब तक इतना ही समझ पाया हूँ-
इन सपनों ने इन अपनों ने,मुझे बहुत ही भरमाया है ।
जब-जब मैंने परखा इनको ,इनसे धोखा ही खाया है ।
मन की
परम अवस्था,
स्वयं में
पूर्ण समा
फिर रचती हूँ
अपनी कविता |
तभी अपनी कविता लिखी जाति है...बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
अपने आप में डूब कर ही सच्छी रचना का जन्म होता है ..
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है!
--
बाल दिवस की शुभकामनाएँ!
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