शुक्रवार, 11 मार्च 2011

219. चलते रहें हम

चलते रहें हम

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दूर आसमान के पार तक
या धरती के अंतिम छोर तक
हाथ थामे चलते रहें हम
आओ कोई गीत गाएँ 
प्रेम की बात करें
चलो यूँ ही चलते रहें हम
तुम्हारी बाहों का सहारा
आँखें मूँद खो जाएँ
साथ चले स्वप्न चलते रहें हम
'शब' तो जागती है रोज़
साथ जागो तुम भी कभी
और बस चलते रहें हम

- जेन्नी शबनम (10. 3. 2011)
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5 टिप्‍पणियां:

Dr. Yogendra Pal ने कहा…

कोशिश जारी रहेगी,

अच्छा लिखा है

रश्मि प्रभा... ने कहा…

''शब'' तो जागती है रोज़
साथ जागो तुम भी कभी
और बस
चलते रहें हम !
waah ... bahut hi badhiyaa

kshama ने कहा…

''शब'' तो जागती है रोज़
साथ जागो तुम भी कभी
और बस
चलते रहें हम !
Bahut pyaree panktiyan hai...pooree rachana hee behad khoobsoorat hai!
Kabhi mere blogs pe bhee tashreef layen to badee khushee hogi!

सहज साहित्य ने कहा…

आँखें मूंद खो जाएँ
साथ चले स्वप्न
चलते रहें हम !
''शब'' तो जागती है रोज़
साथ जागो तुम भी कभी
और बस
चलते रहें हम !
दोनों साथ चलें इसी में जीवन की सार्थकता है । आपकी कविताओं की वाग्विदग्धता का तो कोई ज़वाब नहीं शबनम जी

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर सन्देश देती बढ़िया रचना!