अहल्या
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बल भी तुम्हारा
ठगी गई मैं, अपवित्र हुई मैं
शाप भी दिया तुमने
मुक्ति-पथ भी बताया तुमने
पाषाण बनाया मुझे
उद्धार का आश्वासन दिया मुझे
दाँव पर लगी मैं
इंतज़ार की व्यथा सही मैंने
प्रयोजन क्या था तुम्हारा?
मंशा क्या थी तुम्हारी?
इंसान को पाषाण बनाकर
पाषाण को इंसान बनाकर
शक्ति-परीक्षण, शक्ति-प्रदर्शन
महानता तुम्हारी, कर्तव्य तुम्हारा
बने ही रहे महान
कहलाते ही रहे महान
इन सब के बीच
मेरा अस्तित्व ?
मैं अहल्या
मैं कौन?
मैं ही क्यों?
तुम श्रद्धा के पात्र
तुम भक्ति तुल्य
और मैं?
- जेन्नी शबनम (14. 6. 2013)
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12 टिप्पणियां:
और मैं????
निरुत्तर है वो.......
बहुत सुन्दर और सार्थक कविता जेन्नी जी..मुझे बहुत पसंद आयी....
सादर
अनु
सही प्रश्न है !!
मंगलकामनाएं आपको !
वह बहुत सुंदर
SUNDAR BHAVABHIVYAKTI KE LIYE AAPKO
BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(15-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!
तुम श्रधा के पात्र तुम भक्ति तुल्य और मैं...?
अनुत्तरित प्रश्न है ये ....
बहुत गहन अभिव्यक्ति जेन्नी जी ...
निर्दोष होने पर भी नारी ही हर हाल में पीड़ित और प्रताड़ित हुई । हमारी ये पौराणिक कथाएँ हमारे लिए सबसे ज़्यादा शर्मनाक हैं। हम इनकी प्रशंसा करते हिए नहीं थकते हैं। डॉ जेन्नी शबनम जी कोई न कोई अछूती समस्या उठाती हैं और उसको बहुत ही कलात्मक रूप में प्रस्तुत करती हैं।आपकी हर कविता कुछ न कुछ सोचने केलिए बाध्य करती है।
शक्ति-परीक्षण
शक्ति-प्रदर्शन
महानता तुम्हारी
कर्तव्य तुम्हारा
बने ही रहे महान
मन को उद्वेलित करत्ने वाली रचना
बहुत ही बेहतरीन और सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुती ,धन्यबाद।
निःशब्द ...
इतिहास के ऐसे क्रूर प्रश्नों का जवाब शायद राम के ही पास है ...
वाह!!! निशब्द करती विचारणीय प्रस्तुति...
इंतज़ार की व्यथा सही मैंने
प्रयोजन क्या था तुम्हारा ?
मंशा क्या थी तुम्हारी ?
सुंदर रचना, आभार
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