सोमवार, 11 नवंबर 2013

423. खिड़कियाँ

खिड़कियाँ 

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अभेद दीवारों से झाँकती   
कभी बंद, कभी खुलती   
जाने क्या-क्या सोचती है खिड़की   
शहर का हाल, मोहल्ले का सरोकार   
या दूसरी झाँकती खिड़की के अंदर की बेहाली   
जहाँ अनगिनत आत्माएँ, टूटी बिखरी   
अपने-अपने घुटनों में, अपना मुँह छुपाए   
आने वाले प्रलय से बदहवास हैं   
किसी के पास   
शब्द की जादूगरी नहीं बची   
न ग़ैरों के लिए   
किसी का मज़बूत कंधा ही बचा है   
सभी झाँकती खिड़कियाँ   
एक दूसरे का हाल जानती हैं   
इसलिए उन्होंने   
सारे सवालों को देश निकाला दे दिया है   
और बहनापे के नाते से इंकार कर दिया है   
बची हुई कुछ अबोध खिड़कियाँ   
अचरज और आतंक से देखती   
लहू में लिपटे शोलों को   
दोनों हाथों से लपक रही हैं   
खिड़कियाँ   
जाने क्या-क्या सोच रही हैं।   

- जेन्नी शबनम (10. 9. 2013) 
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4 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

बढ़िया प्रस्तुति-
शुभकामनायें आदरेया-

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति..!

RECENT POST -: कामयाबी.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत खूब ... मासूम, मौन खिड़कियाँ जाने क्या और कितना कुछ समेटे हैं अपने अंदर ...
गहरी रचना ...

Saras ने कहा…

यही सच है .....और खिड़कियों से झांकते हम कितने बेबस ..लाचार हैं......बहोत सुन्दर बिम्ब जेनी जी...!!!