शबनम
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रात चाँदनी में पिघलकर
यूँ मिटी शबनम
सहर को ये ख़बर नहीं थी
कब मिटी शबनम।
दर्द की मिट्टी का घर
फूलों से सँवरा
दर्द को ढकती रही पर
दर्द बनी शबनम।
अपनों के शहर में
है कोई अपना नहीं
ठुकराया आसमाँ और
उफ़ कही शबनम।
चाँद तारों के नगर में
हुई जो तकरार
आसमान से टूटकर
तब ही गिरी शबनम।
शब व सहर की दौड़ से
थकी तो बहुत मगर
वक़्त के साथ चली
अब भी है वही शबनम।
- जेन्नी शबनम (31. 8. 2016)
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4 टिप्पणियां:
जय मां हाटेशवरी...
अनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 02/09/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (02-09-2016) को "शुभम् करोति कल्याणम्" (चर्चा अंक-2453) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर।
एक शबनम की बेचारी कितनी मुश्किलें हैं और आपने बखूबी समेटा है उन सबों को!
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