साथ-साथ
*******
तुम्हारा साथ
जैसे बंजर ज़मीन में फूल खिलना
जैसे रेगिस्तान में जल का स्रोत फूटना।
अकसर सोचती हूँ
तुममें कितनी ज़िन्दगी बसती है
बार-बार मुझे वापस खींच लाते हो ज़िन्दगी में
मेरे घर मेरे बच्चे
सब से विमुख होती जा रही थी
ख़ुद का जीना भूल रही थी।
उम्र की इस ढलान पर
जब सब साथ छोड़ जाते है
न तुमने हाथ छुड़ाया
न तुम ज़िन्दगी से गए
तुमने ही दूरी पार की
जब लगा कि
इस दूरी से मैं खंडहर बन जाऊँगी।
तुमने मेरे जज़्बातों को ज़मीन दी
और उड़ने का हौसला दिया
देखो मैं उड़ रही हूँ
जी रही हूँ!
तुम पास रहो या दूर रहो
साथ-साथ रहना
मुझमें ज़िन्दगी भरते रहना
मुझमें ज़िन्दगी भरते रहना।
- जेन्नी शबनम (24. 3. 2017)
__________________ __
5 टिप्पणियां:
bhut hi sundr kvita hai
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-03-2017) को
"हथेली के बाहर एक दुनिया और भी है" (चर्चा अंक-2610)
पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-03-2017) को
"हथेली के बाहर एक दुनिया और भी है" (चर्चा अंक-2610)
पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
आपकी कविता साथ-साथ दिल को छू गई। गहन अनुभूति और तदनुरूप भाषा। बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आया। बहुत कुछ अच्छा पढ़ने से वंचित हो गया था।
एक टिप्पणी भेजें