बुधवार, 18 अप्रैल 2018

572. विनती (क्षणिका)

विनती   

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समय की शिला पर   
जाने किस घड़ी लिखी जीवन की इबारत मैंने   
ताउम्र मैं व्याकुल रही और वक़्त तड़प गया   
वक़्त को पकड़ने में 
मेरी मांसपेशियाँ कमज़ोर पड़ गईं   
दूरी बढ़ती गई और वक़्त लड़खड़ा गया   
अब मैं आँखें मूँदे बैठी समय से विनती करती हूँ-   
वक़्त दो या बिन बताए   
सब अपनों की तरह मेरे पास से भाग जाओ।  

- जेन्नी शबनम (18. 4. 2018)
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2 टिप्‍पणियां:

'एकलव्य' ने कहा…

आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २३ अप्रैल २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

निमंत्रण

विशेष : 'सोमवार' २३ अप्रैल २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक में दो अतिथि रचनाकारों आदरणीय सुशील कुमार शर्मा एवं आदरणीया अनीता लागुरी 'अनु' का हार्दिक स्वागत करता है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

विश्वमोहन ने कहा…

बहुत बढ़िया!