बुधवार, 1 दिसंबर 2010

190. अपनों का अजनबी बनना

अपनों का अजनबी बनना

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समीप की दो समानांतर राहें
कहीं न कहीं किसी मोड़ पर
मिल जाती हैं
दो अजनबी साथ हों तो
कभी न कभी
अपने बन जाते हैं 

जब दो राह
दो अलग-अलग दिशाओं में
चल पड़े फिर?
दो अपने साथ रहकर
अजनबी बन जाए फिर?

संभावनाओं को नष्टकर
नहीं मिलती कोई राह
कठिन नहीं होता
अजनबी का अपना बनना
कठिन होता है
अपनों का अजनबी बनना

एक घर में दो अजनबी
नहीं होती महज़, एक पल की घटना
पल भर में अजनबी अपना बन जाता है,
लेकिन अपनों का अजनबी बनना
धीमे-धीमे होता है

व्यथा की छोटी-छोटी कहानी होती है
पल-पल में दूरी बढ़ती है
बेगानापन पनपता है
फ़िक्र मिट जाती है
कोई चाहत नहीं ठहरती है

असंभव हो जाता है
ऐसे अजनबी को
फिर अपना मानना

- जेन्नी शबनम (1. 12. 2010)
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8 टिप्‍पणियां:

सहज साहित्य ने कहा…

शबनम जी आपने कहा है- "कठिन नहीं होता
अजनबी का अपना बनना,
कठिन होता है
अपनों का अजनबी बनना !"
यह तो जीवन का कड़ुआ सच कह दिया आपने। ट्रेन के छोटे -से सफ़र में मिलने वाले कुछ अजनबी इतने उदार और सहायक होते हैं कि उनमें अपनों की परछाई नज़र आने लगती है । और कुछ अपने ऐसे भी होते हैं जो दुश्मनों से भी ज़्यादा घातक चोट करते हैं । उनसे बचना बहुत मुश्किल होता है । उनके दिए घाव कभी भर नहीं पाते ।
आपक कविताओं में जीवन के दुखों का दुर्लभ संसार समाया हुआ है । इतना अच्छा लिखने के लिए बधाई !

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

बहुत वेदना है..

M VERMA ने कहा…

एक घर में दो अजनबी
नहीं होती महज़
एक पल की घटना,
पल भर में अजनबी
अपना बन जाता,
लेकिन अपनों का
अजनबी बनना
धीमे धीमे होता !

अजनबियत को भी द्रुत गति से आते देखा है मैनें.
सुन्दर रचना .. सन्देश सुन्दर

vandana gupta ने कहा…

व्यथा की
छोटी छोटी
कहानी होती,
पल पल में
दूरी बढ़ती,
बेगानापन
पनपता,
फिक्र
मिट जाती,
कोई चाहत
नहीं ठहरती !

असंभव हो जाता है
ऐसे अजनबी को
फिर अपना मानना !

सही कह रही हैं…………अपना बनकर अजनबी बनना जीना मुश्किल कर देता है …………व्यथा का मार्मिक चित्रण्।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

असंभव हो जाता है
ऐसे अजनबी को
फिर अपना मानना !
--
आइना दिखाती हुई पोस्ट बहुत बढ़िया रही!

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

अजनबी का अपना बना आसान किन्तु अपने का अजनबी बन जाना बहुत खराब लगता है.. आती जाती राहों में अपना मिलना होना और अपनों का खोना बेहद सुन्दर चित्रण ..आपकी रचना बहुत अच्छी लगी .. आपकी रचना आज दिनाक ३ दिसंबर को चर्चामंच पर रखी गयी है ... http://charchamanch.blogspot.com

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

लेकिन अपनों का
अजनबी बनना
धीमे धीमे होता !


बिलकुल सही कहा ..और फिर यह अजनबियत जाती नहीं ..

अनुपमा पाठक ने कहा…

अपनों का
अजनबी बनना
धीमे धीमे होता !
सच है, वेदना को अभिव्यक्त करती वास्तविकता के करीब पंक्तियाँ!!!