शनिवार, 18 दिसंबर 2010

196. जादू की एक अदृश्य छड़ी

जादू की एक अदृश्य छड़ी

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तुम्हारे हाथों में रहती है
जादू की एक अदृश्य छड़ी
जिसे घुमाकर करते हो
अपनी मनचाही हर कामना पूरी
और रचते हो अपने लिए
स्वप्निल संसार 

उसी छड़ी से छूकर
बना दो मुझे, वो पवित्र परी
जिसे तुम अपनी
कल्पनाओं में देखते हो
और अपने स्पर्श से
प्राण फूँकते हो 

फिर मैं भी
हिस्सा बन जाऊँगी
तुम्हारे संसार का
और जाना न होगा मुझे
उस मृत वन में
जहाँ हर पहर ढूँढती हूँ मैं
अपने प्राण 

- जेन्नी शबनम (13. 12. 2010)
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14 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

कोमल भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति ... एक आध्यात्मिक खोज।

vandana gupta ने कहा…

बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।

संजय भास्‍कर ने कहा…

वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा
आप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
बधाई.

Suman Sinha ने कहा…

तुम्हारे हाथों में रहती है
जादू की एक अदृश्य छड़ी,
जिसे घुमा कर
करते हो
अपनी मनचाही
हर कामना पूरी,
और रचते हो
अपने लिए
स्वप्निल संसार !
aur hum dekhte rahte hain wah jadu aur dhoondhte hain us paar ka rahasya

रश्मि प्रभा... ने कहा…

उसी छड़ी से छू कर
बना दो मुझे
वो पवित्र परी,
जिसे तुम अपनी
कल्पनाओं में देखते हो
और अपने स्पर्श से
प्राण फूंकते हो !
aur mujhe kuch chahiye bhi nahi

Dev ने कहा…

lajwaab prastuti ......bahut khoob

बेनामी ने कहा…

इस मखमली अभिव्यक्ति का को जवाब ही नही है!
इसके लिए एक ही शब्द है "सुन्दर"

Swarajya karun ने कहा…

जादू की छड़ी से पवित्र परी बनने की परिकल्पना मन को छू गयी. सुंदर मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति. आभार .

nilesh mathur ने कहा…

बहुत सुन्दर! बेहतरीन !

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

bhut hi sundar bhawnaawo ki prastuti...

nilesh mathur ने कहा…

बहुत सुन्दर! बेहतरीन!

ManPreet Kaur ने कहा…

behtreen ...

mere blog par bhi kabhi aaiye
Lyrics Mantra

सहज साहित्य ने कहा…

बना दो मुझे
वो पवित्र परी,
जिसे तुम अपनी
कल्पनाओं में देखते हो
और अपने स्पर्श से
प्राण फूंकते हो !शबनम जी ये पंक्तियाँ तो बहुत प्राणवान् हैं । मन के तारों को झंकृत कर देती हैं । भावों के अनुकूल भाषा गहन मनथन से ही उपजता है । आपकी जितनी श्लाघा की जाए कम ही है । बहुत बधाई ! आपकी लेखनी इसी तरह अमृत वर्षा करती रहे !

Rajiv ने कहा…

"फिर मैं भी
हिस्सा बन जाऊँगी
तुम्हारे संसार का,
और जाना न होगा मुझे
उस मृत वन में
जहाँ हर पहर ढूंढ़ती हूँ मैं
अपने प्राण !"
जेन्नी जी ,शायद पहली बार आ पाया हूँ आपके ब्लॉग पर लेकिन जो मिला उससे कोमल भाव,उससे सच्ची चाहत कहाँ पता. देर से ही सही एक अद्भुत भावना का संसार देखने को मिला.