तुम कहते हो-
‘’अपनी क़ैद से आज़ाद हो जाओ।’’
बँधे हाथ मेरे, सींखचे कैसे तोडूँ ?
जानती हूँ, उनके साथ मुझमें भी ज़ंग लग रहा है
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद
एक हाथ भी आज़ाद नहीं करा पाती हूँ।
कहते ही रहते हो तुम
अपनी हाथों से काट क्यों नहीं देते मेरी जंज़ीर?
शायद डरते हो
बेड़ियों ने मेरे हाथ मज़बूत न कर दिए हों
या फिर कहीं तुम्हारी अधीनता अस्वीकार न कर दूँ
या कहीं ऐसा न हो
मैं बचाव में अपने हाथ तुम्हारे ख़िलाफ़ उठा लूँ।
मेरे साथी! डरो नहीं तुम
मैं महज़ आज़ादी चाहती हूँ बदला नहीं
किस-किस से लूँगी बदला
सभी तो मेरे ही अंश हैं
मेरे द्वारा सृजित मेरे अपने अंग हैं
तुम बस मेरा एक हाथ खोल दो
दूसरा मैं ख़ुद छुड़ा लूँगी
अपनी बेड़ियों का बदला नहीं चाहती
मैं भी तुम्हारी तरह आज़ाद जीना चाहती हूँ।
तुम मेरा एक हाथ भी छुड़ा नहीं सकते
तो फिर आज़ादी की बातें क्यों करते हो?
कोई आश्वासन न दो, न सहानुभूति दिखाओ
आज़ादी की बात दोहराकर
प्रगतिशील होने का ढोंग करते हो
अपनी खोखली बातों के साथ
मुझसे सिर्फ़ छल करते हो
इस भ्रम में न रहो कि मैं तुम्हें नहीं जानती हूँ
तुम्हारा मुखौटा मैं भी पहचानती हूँ।
मैं इन्तिज़ार करूँगी उस हाथ का
जो मेरा एक हाथ आज़ाद करा दे
इन्तिज़ार करूँगी उस मन का
जो मुझे मेरी विवशता बताए बिना साथ चले
इन्तिज़ार करूँगी उस वक़्त का
जब जंज़ीर कमज़ोर पड़े और मैं अकेली उसे तोड़ दूँ।
जानती हूँ, कई युग और लगेंगे
थकी हूँ, पर हारी नहीं
तुम जैसों के आगे विनती करने से अच्छा है
मैं वक़्त या उस हाथ का इन्तिज़ार करूँ।
-जेन्नी शबनम (8. 3. 2011)
(अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर)
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29 टिप्पणियां:
di..mahila divas ki hardik shubh kamnaye...
sahi kaha aapne hume kab kisi se koi badala lena hai...bus khuli hawa me sans lene ka haq chahte hain hum bus....dekhe kitani pratiksha aur....
पर अपनी तमाम कोशिशों के बावज़ूद
एक हाथ भी आज़ाद नहीं करा पाती हूँ !
...
कहते हीं रहते हो तुम
अपनी हाथों से
काट क्यों नहीं देते मेरी जंज़ीर,
शायद डरते हो
बेड़ियों ने मेरे हाथ
मज़बूत न कर दिए हों,
या फिर कहीं तुम्हारी अधीनता
अस्वीकार न कर दूँ,
या फिर कहीं ऐसा न हो
मैं बचाव में
अपने हाथ
तुम्हारे खिलाफ़ उठा लूँ !
aaj ke din aaj ke naam sashakt rachna
बहुत ही सही कहा है आपने ...।
महिला दिवस की शुभकामनाएं ।।
बहुत सशक्त रचना पेश की है आपने!
महिला दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
--
केशर-क्यारी को सदा, स्नेह सुधा से सींच।
पुरुष न होता उच्च है, नारि न होती नीच।।
नारि न होती नीच, पुरुष की खान यही है।
है विडम्बना फिर भी इसका मान नहीं है।।
कह ‘मयंक’ असहाय, नारि अबला-दुखियारी।
बिना स्नेह के सूख रही यह केशर-क्यारी।।
हरबार की तरह नैइ ताज़गी लिये है आपकी कविता । सच कहा आपने सभी तो अपने अंश है , किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं, बस अपना हक़ ही चाहिए। आपको लाख-लाख बधाइयाँ ।
महिला दिवस की हार्दिक बधाई .
महिला दिवस पर नारी के मन की बात को बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है …
mahila divas ki hardik shubhkamnaye. aur sath main ek acchi rachna k liye bhi.
bahut khoob likha
shukriya
सश्क्त रचना।
विचारोत्तेजक।
वो दिन भी आयेगा
जब उनका हाथ छुटेगा
एक नहीं दोनों,
बंधे हांथों में भी होती है इतनी ताकत
की ज्यादा दिन बाँध नहीं सकता कोई
खुल ही जाते है
बिना सहायता
बिना किसी से मांगे आजादी
बस !
आजादी का जज्बा होना चाहिए
-शुभकामनाओ सहित कुश्वंश
केवल एक ही हाथ तो बांधा है उसने... अपना दूसरा हाथ तो तुमने स्वयं ही बांध रखा है...क्यों अनुरोध ????क्यों इंतज़ार ???? दूसरा हाथ खोलकर देखो खुद से ...पहला भी उसीसे खुल जायेगा...
bahut achchi lagi.
jenny di...mahila diwas ki bahut bahut shubhkamnayen...:)
itni shashakt rachna:)
shat shat naman!! iss naari ko:)
आशा जी,
यही तो चाहिए बस खुला आसमान और सपने देखने और जीने की आज़ादी. इससे ज्यादा कहाँ कौन चाहती है. शुक्रिया आपको रचना पसंद आई.
रश्मि जी,
रचना से समर्थन केलिए आभार आपका.
सदा जी,
महिला दिवस की आपको भी शुभकामनाएं, और आभार.
इतनी खुबसूरत रचना की तारीफ़ के लिए सही शब्द नहीं मिल रहे...। सो इतना ही कहूँगी...मेरी बधाई...।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) ने कहा…
बहुत सशक्त रचना पेश की है आपने!
महिला दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
--
केशर-क्यारी को सदा, स्नेह सुधा से सींच।
पुरुष न होता उच्च है, नारि न होती नीच।।
नारि न होती नीच, पुरुष की खान यही है।
है विडम्बना फिर भी इसका मान नहीं है।।
कह ‘मयंक’ असहाय, नारि अबला-दुखियारी।
बिना स्नेह के सूख रही यह केशर-क्यारी।।
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आदरणीय रूपचंद्र जी,
बहुत अछि रचना है, बिलकुल वही जो मैं कहना चाहती हूँ| पुरुष या स्त्री कोई कम नहीं दोनों बराबर हैं और बस यही ज़रूरी है| पर स्त्रियों के प्रति असामनता और दुर्व्यवहार कभी ख़त्म हीं नहीं होता| जबकि हमारे धर्म में भी स्त्री को देवी कहा जाता है|
बहुत आभार आपका!
कम्बोज भाईसाहब,
सदा की तरह मुझे स्नेह और समर्थन देने केलिए मन से आभार|
वंदना जी,
सराहना के लिए मन से धन्यवाद!
विजय जी,
सराहना केलिए बहुत आभार!
मनोज जी,
बहुत शुक्रिया आपका|
कुश्वंश ने कहा…
वो दिन भी आयेगा
जब उनका हाथ छुटेगा
एक नहीं दोनों,
बंधे हांथों में भी होती है इतनी ताकत
की ज्यादा दिन बाँध नहीं सकता कोई
खुल ही जाते है
बिना सहायता
बिना किसी से मांगे आजादी
बस !
आजादी का जज्बा होना चाहिए
-शुभकामनाओ सहित कुश्वंश
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कुश्वंश जी,
सही कहा आपने, उसी वक़्त का तो इंतज़ार है अब, कोई तो वक़्त आएगा जब खुद हीं दोनों हाथ आज़ाद होंगे, बिना किसी की मदद के, और अब मदद की गुहार भी किसी से नहीं, वक़्त और अपनी ताकत का इंतज़ार है...
रचना के समर्थन केलिए मन से आभार आपका!
Dr. RAMJI GIRI ने कहा…
केवल एक ही हाथ तो बांधा है उसने... अपना दूसरा हाथ तो तुमने स्वयं ही बांध रखा है...क्यों अनुरोध ????क्यों इंतज़ार ???? दूसरा हाथ खोलकर देखो खुद से ...पहला भी उसीसे खुल जायेगा...
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डॉक्टर साहब,
यही तो बात है कि दोनों हाथ बाँध दिए गए हैं एक हाथ नहीं, वरना एक हाथ को आज़ाद करना क्या यूँ मुश्किल होता? क्या सदियाँ बीत जाती? नहीं है एक हाथ भी खुला, वरना इतनी ताकत किसमें थी कि दूसरा हाथ भी जकड देता?
किसी की सहायता अब नहीं, बस वक़्त का इंतज़ार है जब खुद के हौसला से आज़ादी मिलेगी...कब ये नहीं पता, पर स्त्रीयां होंगी आज़ाद इतना जानती हूँ|
हौसला और जज्बा बढाने वाली प्रतिक्रिया केलिए मन से शुक्रिया आपका|
मृदुला जी,
बहुत धन्यवाद आपका|
ब्लॉगर Mukesh Kumar Sinha ने कहा…
jenny di...mahila diwas ki bahut bahut shubhkamnayen...:)
itni shashakt rachna:)
shat shat naman!! iss naari ko:)
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मुकेश भाई,
महिला दिवस की आपको भी शुभकामनाएं|
एक गाना सुना है आपने
''हम अबला नहीं चिंगारी हैं...''
चिंगारी जो सुलग रही है सदियों से, बस हवा लगने की देर है और फिर जिस दिन भड़क गयी फिर तो महाप्रलय...
फिर किसी शिव को आना होगा शांत करने...
बहुत शुक्रिया भाई मान देने केलिए!
ब्लॉगर KAHI UNKAHI ने कहा…
इतनी खुबसूरत रचना की तारीफ़ के लिए सही शब्द नहीं मिल रहे...। सो इतना ही कहूँगी...मेरी बधाई...।
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प्रियंका जी,
रचना की प्रशंसा के लिए दिल से शुक्रिया आपका|
आप खतरनाक मूड में हैं, मैं तो चला यहां से...........
आप खतरनाक मूड में हैं, मैं तो चला यहां से...........
ब्लॉगर संजय ग्रोवर Sanjay Grover ने कहा…
आप खतरनाक मूड में हैं, मैं तो चला यहां से...........
March 10, 2011 10:15 PM
हटाएँ
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संजय जी,
ये खतरनाक मूड सदियों से है, शब्द बार बार लिखे जाते, विमर्श होते लेकिन जंजीरों को खोल देने की हिम्मत कोई न करता...
यूँ आपने कभी किसी के हाथ बांधे नहीं इसलिए बेफिक्र रहिये...
बहुत शुक्रिया यहाँ तक आने केलिए!
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