शुक्रवार, 18 मार्च 2011

222. आदम और हव्वा

आदम और हव्वा

***

क़ुदरत की कारस्तानी है
स्त्री-पुरुष की कहानी है
फल खाकर आदम-हव्वा ने
की ग़ज़ब नादानी है 

चालाकी क़ुदरत की या
आदम-हव्वा की मेहरबानी है
बस गई छोटी-सी दुनिया 
जैसे अन्तरिक्ष में चूहेदानी है 

क़ुदरत ने बसाया यह संसार
जिसमें आदम है, हव्वा है
उन्होंने खाया एक सेब मगर
संतरे-सी छोटी ये दुनिया है 

सोचती हूँ, काश!
एक दो और आदम-हव्वा आए होते
आदम-हव्वा ने दो फल खाए होते
दुनिया बड़ी होती, गहमागहमी और बढ़ जाती

दुनिया दोगुनी, लोग दोगुने होते
हर घर में एक ही जगह पर दो आदमी होते
न कोई अकेला उदास होता
न कोई अनाथ होता
न कहीं तनहाई होती
न कोई तनहा मन रोता

न सुनसान इलाक़ा होता
हर तरफ़ इक रौनक होती
कहीं आदम के ठहाके
कहीं चूड़ियों की खनक होती

हर जगह आदमज़ाद होता
जवानों का मदमस्त जमघट होता
कहीं बच्चों की चहचहाती जमात होती
कहीं बुज़ुर्गों की ख़ुशहाल टोली होती
कहीं श्मशान पर शवों का रंगीन कारवाँ होता
क्या न होता और क्या-क्या होता

सोचो ज़रा ये भी तुम
होता नहीं कोई गुमसुम
मृत्यु पर भी लोग ग़मगीन न होते
गीत मौत का पुरलय होता
जीवन-मृत्यु दोनों का जश्न होता
वहाँ (स्वर्गलोक) के अकेलेपन का भय न होता
कहीं कोई बिनब्याहा बेचारा न होता
कहीं कोई निर्वंश बेसहारा न होता
एक नहीं दो डॉक्टर आते
कोई एक अगर बीमार होता

क्या रंगीन फ़िज़ा होती
क्या हसीन समा होता
हर जगह क़ाफ़िला होता
हर तरफ़ त्योहार होता

सोचती हूँ, काश!
एक और आदम होता
एक और हव्वा होती
उन्होंने एक और फल खाए होते 
दुनिया तरबूज-सी बड़ी होती
सूरज से न डरी होती
तरबूज-सी बड़ी होती

- जेन्नी शबनम (16. 3. 2011)
(होली के अवसर पर)
______________________

10 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

दुनिया दोगुनी लोग दोगुने होते
हर घर में एक हीं जगह पर दो आदमी होते,
न कोई अकेला उदास होता
न कोई अनाथ होता,
न कहीं तन्हाई होती
न तन्हा मन कोई रोता !
bahut sahi kaha, holi ki shubhkamnayen

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना!
--
उनको रंग लगाएँ, जो भी खुश होकर लगवाएँ,
बूढ़ों और असहायों को हम, बिल्कुल नहीं सताएँ,
करें मर्यादित हँसी-ठिठोली।
आओ हम खेलें हिल-मिल होली।।
--
होलिकोत्सव की सुभकामनाएँ!

Dr. Yogendra Pal ने कहा…

शवों का रंगीन काफिला होता

इस पंक्ति मुझे सबसे अच्छी लगी

पाठकों पर अत्याचार ना करें ब्लोगर

mridula pradhan ने कहा…

bahut achcha likhi hain.....

kshama ने कहा…

Holee mubarak ho!

सहज साहित्य ने कहा…

बहन आज के दिन के लिए आपका यह नया चिन्तन मन मोह गया ; लेकिन गनीमत है उन्होंने एक ही फल खाया । अधिक खाते तो आज कुछ लोग जितना सताते हैं , उससे ज़्यादा सताने वाले आ जाते । अगर ऐसा होता तो बचाने वाले भी तो ज़रूर आते। बधाइयां भी ज़्यादा ही मिलती , फिर तो सचमुच हम सबकी बांछे खिलती ।

दर्शन कौर धनोय ने कहा…

अच्छा हुआ जो हव्वा ने एक ही फल खाया--
वरना बेरोजगारी डबल होती;
भष्ट नेता हजारो होते--
हम तुम दो पतियों के -
बोझ तले कुछ और दब गए होते--!
इस बढती हुई जनसंखया पर
और अधिक जनसंख्या होती --
अच्छा है जो हव्वा ने एक ही फल से अपनी प्यास बुझाई ..

बेहतरीन शब्द ! बेहतरीन जज्बात! राजीव जी ने आपकी तारीफ यु ही नही की --आप इसके काबिल भी है बधाई ..

Rajendra Rathore ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना! आपको अनेकानेक शुभकामनायें

संजय भास्‍कर ने कहा…

रंगों का त्यौहार बहुत मुबारक हो आपको और आपके परिवार को|
कई दिनों व्यस्त होने के कारण  ब्लॉग पर नहीं आ सका
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

Anubhooti ने कहा…

bahut sundar likha hai kash aisa ho jata
dher sari shubhkamnaiye