प्रवासी मन
(प्रथम हाइकु लेखन, 11 हाइकु)
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1.
(प्रथम हाइकु लेखन, 11 हाइकु)
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1.
लौटता कहाँ
मेरा प्रवासी मन
कोई न घर।
मेरा प्रवासी मन
कोई न घर।
2.
कुछ ख्व़ाहिशें
फलीभूत न होतीं
सदियाँ बीती।
3.
मन तड़पा
भरमाए है जिया
मैं निरुपाय।
4.
पाँव है ज़ख़्मी
राह में फैले काँटे
मैं जाऊँ कहाँ?
5.
प्रेम-बगिया
ये उजड़नी ही थी
सींच न पाई।
6.
दम्भ जो टूटा
फिर उल्लास कैसा
विक्षिप्त मन।
7.
मन चहका
घर आए सजन
बावरा मन।
8.
महा-प्रलय
ढह गया अस्तित्व
लीला जीवन।
9.
विनाश होता
चहुँ ओर आतंक
प्रकृति रोती।
10.
कठिन बड़ा
पर होता है जीना
पूर्ण जीवन।
11.
अजब भ्रम
कैसे समझे कोई
कौन अपना।
- जेन्नी शबनम (24. 3. 2011)
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13 टिप्पणियां:
waise to sabhi bahut achchi hain par ye wala kuch vishesh hai.....
'प्रेम बगिया
उजड़ना ही था
सींच न पायी '
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बहुत सुन्दर ........सभी हाइकू बेजोड़
सबी हाइकू सारगर्भित हैं!
कविता का मूल उसका भाव है और जीवन-जगत के परिपक्व अनुभूत सत्यों से सशक्त भाषा रचना को रूपाकार देती है । बहन जेन्नी शबनम जी के पास जीवन के अनुभव की गहराई तो है ही , भाषा की मज़बूत पकड़ भी है । इन्होंने अपने हाइकुओं की संश्लिष्ट काया में मर्मस्पर्शी भाव पिरोकर सिद्ध कर दिया है । मैं बड़ी बात नही कह रहा हूँ -अपने चालीस वर्षों के शिक्षण काल में ऐसी ढेर सारी पाठ्यक्रमीय कविताएँ पढ़ा चुका हूँ , जो विद्यार्थियों को कविता से बिदका देती हैं । वे कविताएँ इसलिए पढ़ाई जाती हैं; क्योंकि तथाकथित बड़े लोगों द्वारा रची , अरसिक पाठ्यक्रम निर्माताओं द्वार थोपी हुई कविताएँ हैं । जेन्नी जी की कविता का एक-एक शब्द पाठक को बाँध लेता है । वही त्वरा आपके हाइकु में भी है। भाव-भाषा से पूरी तरह विभूषित , मर्मस्पर्शी ।मैंने 1986 में जब पहली बार हाइकु लिखे थे तब ऐसा ढेर सारा अधकचरा लेखन आगे आ रहा था , जो पाठकों को हाइकु के प्रति गुमराह ही कर रहा था । आज भी बहुर सारे स्वनामधन्य रचनाकार इस विधा को कचरे से पाट रहे हैं और हाइकुकार होने की गलतफ़हमी में मुब्तिला हैं। जेन्नी जैसे समर्थ रचनाकार सचमुच आशान्वित करते हैं । हमें यह याद रखना चाहिए कि कोई भी विधा अच्छी रचनाओं से ही समृद्ध होती है, तथाकथैत बड़े नामों से नहीं । अच्छी और सच्ची रचना से ही रचनाकार ज़िन्दा रहता है । बेजान रचना(उसे रचना नहीं कहना चाहिए) से रचनाकार अपने जीवनकाल में ही मर जाता है । सार्थक हाइकु -सर्जन के लिए जेन्नी बहन को हार्दिक बधाई !
9. विनाश होता
चहुँ ओर आतंक
प्रकृति रोती.
haiku badhiyaa likha hai
samarth vegmati rachana , prabudh vicharon ki ladi . shukrya .
sundar
दंभ जो टूटा
फिर कैसा उल्लास
विक्षिप्त मन.
सभी हाइकु बहुत अच्छे लगे....
जेन्नी जी
मैं भाई रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ।
साहित्य की किसी भी विधा की अच्छी रचना कुछ स्वमान्यधन्य लोगों के षड्यंत्र के चलते सामने नहीं आ पाती हैं और जानबूझ कर हाशिये पर धकेल दी जाती हैं।
मुझे हाइकु की समझ अधिक नहीं हैं फिर भी नीचे दिये आपके दो हाइकु पर कुछ कहना चाहता हूँ, अन्यथा न लें-
पाँव है ज़ख़्मी
राह में फैले काँटे
मैं जाऊं कहाँ.
उक्त हाइकु में यदि आप ‘फैले’ के स्थान पर ‘बिछे’ कर दें तो सही ना होगा ?
शुभकामनाओं सहित
सुभाष नीरव
@ मृदुला जी,
सराहना के लिए शुक्रिया.
@ सुरेन्द्र जी,
बहुत आभार.
@ रूपचंद्र जी,
बहुत शुक्रिया.
ब्लॉगर सहज साहित्य ने कहा…
कविता का मूल उसका भाव है और जीवन-जगत के परिपक्व अनुभूत सत्यों से सशक्त भाषा रचना को रूपाकार देती है । बहन जेन्नी शबनम जी के पास जीवन के अनुभव की गहराई तो है ही , भाषा की मज़बूत पकड़ भी है । इन्होंने अपने हाइकुओं की संश्लिष्ट काया में मर्मस्पर्शी भाव पिरोकर सिद्ध कर दिया है । मैं बड़ी बात नही कह रहा हूँ -अपने चालीस वर्षों के शिक्षण काल में ऐसी ढेर सारी पाठ्यक्रमीय कविताएँ पढ़ा चुका हूँ , जो विद्यार्थियों को कविता से बिदका देती हैं । वे कविताएँ इसलिए पढ़ाई जाती हैं; क्योंकि तथाकथित बड़े लोगों द्वारा रची , अरसिक पाठ्यक्रम निर्माताओं द्वार थोपी हुई कविताएँ हैं । जेन्नी जी की कविता का एक-एक शब्द पाठक को बाँध लेता है । वही त्वरा आपके हाइकु में भी है। भाव-भाषा से पूरी तरह विभूषित , मर्मस्पर्शी ।मैंने 1986 में जब पहली बार हाइकु लिखे थे तब ऐसा ढेर सारा अधकचरा लेखन आगे आ रहा था , जो पाठकों को हाइकु के प्रति गुमराह ही कर रहा था । आज भी बहुर सारे स्वनामधन्य रचनाकार इस विधा को कचरे से पाट रहे हैं और हाइकुकार होने की गलतफ़हमी में मुब्तिला हैं। जेन्नी जैसे समर्थ रचनाकार सचमुच आशान्वित करते हैं । हमें यह याद रखना चाहिए कि कोई भी विधा अच्छी रचनाओं से ही समृद्ध होती है, तथाकथैत बड़े नामों से नहीं । अच्छी और सच्ची रचना से ही रचनाकार ज़िन्दा रहता है । बेजान रचना(उसे रचना नहीं कहना चाहिए) से रचनाकार अपने जीवनकाल में ही मर जाता है । सार्थक हाइकु -सर्जन के लिए जेन्नी बहन को हार्दिक बधाई !
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काम्बोज भाईसाहब,
सही कहा कि कविता ऐसी हो जिसमें आत्मा बसती हो, सिर्फ शब्दों के चयन और समन्वयन से कविता नहीं होती| यूँ तो मैं कवियत्री नहीं हूँ, महज़ अपनी वो संवेदना जो किसी से कह नहीं सकती लिखती रही हूँ, बहुत ज्यादा जानती भी नहीं इस विषय में| हाइकु के बारे में तो शायद पहली बार आपसे हीं जानी हूँ| आपकी प्रेरणा और उत्साहवर्धन से हाइकु लिखने की हिम्मत कर सकी| आपका स्नेह, आशीष और मार्गदर्शन यूँ हीं मिलता रहे ताकि कुछ अच्छा लिख सकूँ और आपकी आशाओं पर खरी उतर सकूँ| बहुत आभार आपका|
@रश्मि जी,
बहुत धन्यवाद.
@ उदय जी,
बहुत शुक्रिया.
@ आवेश जी,
बहुत बहुत शुक्रिया, आप यहाँ तक आये.
@ मोनिका जी,
बहुत धन्यवाद.
सुभाष नीरव ने कहा…
जेन्नी जी
मैं भाई रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ।
साहित्य की किसी भी विधा की अच्छी रचना कुछ स्वमान्यधन्य लोगों के षड्यंत्र के चलते सामने नहीं आ पाती हैं और जानबूझ कर हाशिये पर धकेल दी जाती हैं।
मुझे हाइकु की समझ अधिक नहीं हैं फिर भी नीचे दिये आपके दो हाइकु पर कुछ कहना चाहता हूँ, अन्यथा न लें-
पाँव है ज़ख़्मी
राह में फैले काँटे
मैं जाऊं कहाँ.
उक्त हाइकु में यदि आप ‘फैले’ के स्थान पर ‘बिछे’ कर दें तो सही ना होगा ?
शुभकामनाओं सहित
सुभाष नीरव
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सुभाष जी,
यूँ मैं पहली बार हीं हाइकु लिखी हूँ और वो भी काम्बोज भाई के आदेश और निर्देश से| जिस हाइकु की बात आप कह रहे, शायद ज्यादा अच्छा होता अगर फैले की जगह बिछे लिखती. लेकिन लिखते समय जब इस शब्द में खुद को सोच रही थी तो ज़ेहन में पहले बिछे हीं आया था, लेकिन फिर लगा कि बिछना में तो एक सार बिछा होना होता है और मेरे ज़ेहन में कहीं कहीं कांटे बिछे थे, जैसे जिंदगी में फूल और कांटे दोनों होते हैं, तो मुझे फैले शब्द ज्यादा उपयोगी लगा था.
इस पर काम्बोज भाई से भी चर्चा करुँगी, हो सकता है तब ये हाइकु ज्यादा अच्छा लगे जब बिछे लिखूं.
तहेदिल से आपका शुक्रिया कि आपने बहुत ध्यान से इसे पढ़ा और उपयुक्त सुझाव देकर मुझे लाभान्वित किया|
बहुत आभार.
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