शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

227. विध्वंस होने को आतुर

विध्वंस होने को आतुर

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चेतन अशांत है
अचेतन में कोहराम है
अवचेतन में धधक रहा
जैसे कोई ताप है

अकारण नहीं संताप
मिटना तो निश्चित है
नष्ट हो जाना ही
जैसे अंतिम परिणाम है

विक्षिप्तता की स्थिति
क्रूरता का चरमोत्कर्ष है
विध्वंस होने को आतुर
जैसे अब हर इंसान है

विभीषिका बढ़ती जा रही
स्वयं मिटे अब दूसरों की बारी है
चल रहा कोई महायुद्ध
जैसे सदियों से अविराम है

- जेन्नी शबनम (28 . 3 . 2011)
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10 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

सही कह रही हैं…………बेहद सुन्दर रचना।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी रचना के तीनों छन्द सार्थर और सशक्त हैं!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

विक्षिप्तता की स्थिति
क्रूरता का चरमोत्कर्ष है,
विध्वंस होने को आतुर
जैसे अब हर इंसान है !
sach kaha ...

Unknown ने कहा…

विक्षिप्तता की स्थिति
क्रूरता का चरमोत्कर्ष है,

सुन्दर रचना

सहज साहित्य ने कहा…

पूरा विश्व आज आपाधापी में उलझा हुआ है , अशान्त है । सहिष्णुता हार चुकी है । यही कारण है कि आदमी को कुछ नहीं सूझ रहा है ।अधिकतम की शक्ति पूरी तरह विनाश में लगी हुई है । बहुत सटीक और प्रभावी चित्रण है ।

वाणी गीत ने कहा…

बार बार लगता है जैसे घड़ा भर गया ... बस फूटने ही वाला है ...
सुन्दर रचना !

mridula pradhan ने कहा…

bahot sundar.

ओम पुरोहित'कागद' ने कहा…

सुन्दर अभिव्यक्ति !
यथार्थ !
आज तो आपके ब्लोग पर भ्रमण भर किया है- फ़िर आऊंगा !
आपके ब्लोग पर आना अच्छा लगा !
सुन्दर ब्लोग और अच्छी रचनाएं !
जय हो !

संजय भास्‍कर ने कहा…

बेहद सुन्दर रचना।

संजय भास्‍कर ने कहा…

नवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनायें !
माँ दुर्गा आपकी सभी मंगल कामनाएं पूर्ण करें