सोमवार, 4 अप्रैल 2011

228. हाथ और हथियार

हाथ और हथियार

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भूख से कुलबुलाता पेट
हाथ और हथियार की भाषा भूल गया
नहीं पता किससे छीने
अपना ठौर-ठिकाना भूल गया

मर गया था छोटका जब
मार दिया था ख़ुद को तब
अब तो बस बारी है
पेट की ख़ातिर आग लगानी है

नहीं चाहिए कोई घर
जहाँ पल-पल जीना था दूभर
अब ख़ून से खेलेगा
अब किसी का छोटका नहीं मरेगा

बड़का अब भरपेट खाएगा
जोरू का बदन कोई नोच न पाएगा
छुटकी अब पढ़ पाएगी
हाथ में क़लम उठाएगी

अब तो जीत लेनी है दुनिया
हथियार ने हर ली हर दुविधा
अब भूख से पेट नहीं धधकेगी
आग-आग-आग बस आग लगेगी

यों भी मर ही जाना था
सब अपनों की बलि जब चढ़ जाना था
अब दम नहीं कि कोई उलझे
हाथ में है हथियार, जब तक दम न निकले

- जेन्नी शबनम (30.3.2011)
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3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत खूब!
सुन्दर रचना!
आपकी कामनाएँ पूर्ण हो!

Unknown ने कहा…

आशा की नीव रखती कविता, बेहतरीन भावो का सम्मिश्रण बधाई

सहज साहित्य ने कहा…

एकदम अलग तेवर की कविता ।जुझारूपन को रेखांकित ही नहीं करती वरन् उसे प्रोत्साहित भी करती है ताकि शोषण से पीड़ित व्यक्ति मुकाबला करके शोषण से मुक्ति पा सके ।बहन जेनी शबनम जी बहुत बधाई !