हवा ख़ून-ख़ून कहती है
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जाने कैसी हवा चल रही है
न ठंडक देती है न साँसें देती है
बदन को छूती है, तो जैसे सीने में बर्छी-सी चुभती है।
हवा अब बदल गई है
यूँ चीखती चिल्लाती है मानो
किसी नवजात शिशु का दम अभी-अभी टूटा हो
किसी नव ब्याहता का सुहाग अभी-अभी उजड़ा हो
भूख से कुलबुलाता बच्चा भूख-भूख चिल्लाता हो
बीच चौराहे किसी का अस्तित्व लुट रहा हो और
उसकी गुहार पर अट्टहास गूँजता हो।
हवा अब बदल गई है
ऐसे वीभत्स दृश्य दिखाती है मानो
विस्फोट की तेज़ लपटों के साथ बेगुनाह इंसानी चिथड़े जल रहे हों
ख़ुद को सुरक्षित रखने के लिए लोग घर में क़ैदी हो गए हों
पलायन की विवशता से आहत कोई परिवार अंतिम साँसें ले रहा हो
खेत-खलिहान जंगल-पहाड़ निर्वस्त्र झुलस रहे हों।
जाने कैसी हवा है
न नाचती है, न गीत गाती है
तड़पती, कराहती, ख़ून उगलती है।
हवा अब बदल गई है
लाल लहू से खेलती है
बिखेरती है इंसानी बदन का लहू गाँव शहर में
और छिड़क देती है मंदिर-मस्जिद की दीवारों पर
फिर आयतें और श्लोक सुनाती है।
हवा अब बदल गई है, अब साँय-साँय नहीं कहती
अपनी प्रकृति के विरुद्ध, ख़ून-ख़ून कहती है,
हवा बदल गई है, ख़ून-ख़ून कहती है।
- जेन्नी शबनम (20. 4. 2011)
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जाने कैसी हवा चल रही है
न ठंडक देती है न साँसें देती है
बदन को छूती है, तो जैसे सीने में बर्छी-सी चुभती है।
हवा अब बदल गई है
यूँ चीखती चिल्लाती है मानो
किसी नवजात शिशु का दम अभी-अभी टूटा हो
किसी नव ब्याहता का सुहाग अभी-अभी उजड़ा हो
भूख से कुलबुलाता बच्चा भूख-भूख चिल्लाता हो
बीच चौराहे किसी का अस्तित्व लुट रहा हो और
उसकी गुहार पर अट्टहास गूँजता हो।
हवा अब बदल गई है
ऐसे वीभत्स दृश्य दिखाती है मानो
विस्फोट की तेज़ लपटों के साथ बेगुनाह इंसानी चिथड़े जल रहे हों
ख़ुद को सुरक्षित रखने के लिए लोग घर में क़ैदी हो गए हों
पलायन की विवशता से आहत कोई परिवार अंतिम साँसें ले रहा हो
खेत-खलिहान जंगल-पहाड़ निर्वस्त्र झुलस रहे हों।
जाने कैसी हवा है
न नाचती है, न गीत गाती है
तड़पती, कराहती, ख़ून उगलती है।
हवा अब बदल गई है
लाल लहू से खेलती है
बिखेरती है इंसानी बदन का लहू गाँव शहर में
और छिड़क देती है मंदिर-मस्जिद की दीवारों पर
फिर आयतें और श्लोक सुनाती है।
हवा अब बदल गई है, अब साँय-साँय नहीं कहती
अपनी प्रकृति के विरुद्ध, ख़ून-ख़ून कहती है,
हवा बदल गई है, ख़ून-ख़ून कहती है।
- जेन्नी शबनम (20. 4. 2011)
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22 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर भावना पूर्ण रचना | धन्यवाद
bahan shbnam ji aaj ke haalaaton par stik rchnaa byaan kr daali hai bdhaai ho . akhtar khan akela kota rajsthan
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (5-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
परम आदरणीय जेन्नी जी ,बहुत ही उद्वेलित कर देने वाली कविता है ,जीवन की थकन में ऐसी कविता पढ़कर बोझिल होने को जी नहीं चाहता ,मगर ये इस समय का सच है,हमें इनसे जूझना ही होगा |श्रेष्ठ रचना के लिए बधाई |
हर रोज अखबार की हेड लाईन्स या टी वी पर समाचार भी यही कहते हैं ...
मार्मिक !
हवा अब बदल गई है
यूँ चीखती चिल्लाती है मानो
किसी नवजात शिशु का दम अभी अभी टूटा हो
किसी नव ब्याहता का सुहाग अभी अभी उजड़ा हो
भूख़ से कुलबुलाता बच्चा भूख़ भूख़ चिल्लाता हो
बीच चौराहे किसी का अस्तित्व लुट रहा हो और
उसकी गुहार पर अट्टहास गूंजता हो|
kya abhivyakti hai ! gajab
हवा अब बदल गई है
लाल लहू से खेलती है
बिखेरती है इंसानी बदन का लहू गाँव शहर में
और छिड़क देती है मंदिर-मस्ज़िद की दीवारों पर
फिर आयतें और श्लोक सुनती है|
बहुत गहन और सार्थक सोच..इस हवा को हमें फिर बदलना होगा..बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..
AAJ KE SAMAAJ KE KUCH PAHLUWON PAR BTATI EK VICHLIT KARNE WALI RACHNA. . . . . . . JAI HIND JAI BHARAT
bhut hi gabhir vichar abhivakti,aur usme sabdo ka chayan behad khubsurat...
behatarin post .shukriya ji.
आपकी कविता वटवृक्ष में पढी, आपका ब्लॉग देखा, बहुत अच्छा लगा , दिल्ली हिन्दी भवन में ब्लॉगर्स सम्मेलन में भी आपकी चर्चा सुनी । बधाई स्वीकारें......
आपकी कविता वटवृक्ष में पढी, आपका ब्लॉग देखा, बहुत अच्छा लगा , दिल्ली हिन्दी भवन में ब्लॉगर्स सम्मेलन में भी आपकी चर्चा सुनी । बधाई स्वीकारें......
दर्द भरी ...कैसी हवा है ...रूह स्तब्ध कर गयी ...गम के अथाह सागर में डुबो गयी .....!!
बहुत सुंदर रचना ...बधाई आपको .
दर्द भरी ...कैसी हवा है ...रूह स्तब्ध कर गयी ...गम के अथाह सागर में डुबो गयी .....!!
बहुत सुंदर रचना ...बधाई आपको .
bahot achche.....
मार्मिक रचना।
जाने कैसी हवा है
न नाचती है न गीत गाती है
तड़पती, कराहती, खून उगलती है|
बहुत ही खूब.
बहुत खूब लिखती हैं आप.
आपकी कलम को सलाम.
सचमुच हवा बदल गई है या यों कहिए तरह -तरह के झूठे आदर्शों में लपेटकर अपने चिन्तन और कर्म को अलग-अलग रास्तों पर धकेल दिया है । निम्नलिखित पंक्तियों में एक प्रकार की छटपटाहट भरी है । गम्भीर कविता है । हवा को बहुत अच्छे प्रतीक के रूप में केवल प्रयोग ही नहीं किया वरन् आद्यन्त उसका निर्वाह भी किया है ।हवा अब बदल गई है
लाल लहू से खेलती है
बिखेरती है इंसानी बदन का लहू गाँव शहर में
और छिड़क देती है मंदिर-मस्ज़िद की दीवारों पर
फिर आयतें और श्लोक सुनती है|
बेहद प्रभावशाली शब्दांकन, जीवन को करीब से देखने की प्रश्तुती बधाई
हवा तो आज भी साय-साय कह्ती है इंसान ही बदल गया है।
हवा अब बदल गई है
अब सांय-सांय नहीं कहती
अपनी प्रकृति के विरुद्ध
खून खून कहती है,
हवा बदल गई है
खून खून कहती है|
bhav purn prastuti
हवा के इस परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं हम । स्तब्ध करने वाली मर्मस्पर्शी रचना । धन्यवाद ।
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