फ़ना हो जाऊँ
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मन चाहे बस सो जाऊँ
तेरे सपनों में खो जाऊँ।
सब तो छोड़ गए हैं तुमको
पर मैं कैसे बोलो जाऊँ।
बड़ों के दुःख में दुनिया रोती
दुःख अपना तन्हा रो जाऊँ।
फूल उगाते ग़ैर की ख़ातिर
ख़ुद के लिए काँटे बो जाऊँ।
ताउम्र मोहब्बत की खेती की
कैसे ज़हर मैं अब बो जाऊँ।
मिला न कोई इधर अपना तो
'शब' सोचे कि फ़ना हो जाऊँ।
- जेन्नी शबनम (25. 7. 2014)
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6 टिप्पणियां:
बेहतरीन अंदाज़..... सुन्दर
अभिव्यक्ति........
बहन जेन्नी जी , आपकी कविता 'फ़ना हो जाऊँ' पढ़ी । मन में एक टीस -सी उठी । अवसाद में डूबे आपके शब्द मन को भीगो गए । कविता लिखी नहीं जाती -रची जाती है , जीवन में उतारी जाती । आपकी हर पंक्ति मुखरित है। आपको ढेर सारी बधाई । रामेश्वर काम्बोज
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (27-07-2014) को "संघर्ष का कथानक:जीवन का उद्देश्य" (चर्चा मंच-1687) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ताउम्र मोहब्बत की खेती की
कैसे ज़हर मैं अब बो जाऊँ !
बहुरत खूब .. कर शेर मन के जज्बात बयान करता है ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
बेहद उम्दा...बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ
रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनायें...
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