देर कर दी
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हाँ! देर कर दी मैंने
हर उस काम में जो मैं कर सकती थी
दूसरों की नज़रों में ख़ुद को ढालते-ढालते
सबकी नज़रों से छुपाकर
अपने सारे हुनर दराज़ में बटोरकर रख दी
दुनियादारी से फ़ुर्सत पाकर
करूँगी कभी मन का।
अंतत: अब
मैं फ़िजूल साबित हो गई
रिश्ते सहेजते-सहेजते ख़ुद बिखर गई
साबुत कुछ नहीं बचा
न रिश्ते न मैं न मेरे हुनर।
मेरे सारे हुनर
चीख़ते-चीख़ते दम तोड़ गए
बस एक दो जो बचे हैं
उखड़ी-उखड़ी साँसें ले रहे हैं
मर गए सारे हुनर के क़त्ल का
इल्ज़ाम मुझको दे रहे है
मेरे क़ातिल बन जाने का सबब
वे मुझसे पूछ रहे हैं।
हाँ! बहुत देर कर दी मैंने
दुनिया को समझने में
ख़ुद को बटोरने में
अर्धजीवित हुनर को बचाने में।
हाँ! देर तो हो गई
पर सुबह का सूरज
अपनी आँच मुझे दे रहा है
अँधेरों की भीड़ से खींचकर मुझे
उजाला दे रहा है।
हाँ! देर तो हो गई मुझसे
पर अब न होगी
नहीं बचा वक़्त मेरे पास अब
जो भी बच सका है रिश्ते या हुनर
सबको एक नई उम्र दूँगी
हाँ! अब देर न करूँगी।
- जेन्नी शबनम (9. 9. 2016)
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3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-09-2016) को "प्रयोग बढ़ा है हिंदी का, लेकिन..." (चर्चा अंक-2462) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
जान आँख खुले सवेरा तो तभी होता है ... भावपूर्ण रचना ...
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