बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

691. देहाती (पुस्तक-नवधा)

देहाती 

*** 

फ़िक्रमन्द हूँ, उन सभी के लिए   
जिन्होंने सूरज को हथेली में नहीं थामा   
चाँद के माथे को नहीं चूमा   
वर्षा में भीग-भीगकर न नाचा न खेला   
माटी को मुट्ठी में भरकर, बदन पर नहीं लपेटा।
   
दुःख होता है उनके लिए   
जिन्हें नहीं पता कि मूँडेर क्या होती है   
मूँज से चटाई कैसे बनती है   
अँगना लीपने के बाद कैसा दिखता है   
ढेंकी और जाँता की आवाज़ कैसी होती है।
   
उन्होंने कभी देखा नहीं, गाय-बैल का रँभाना   
बाछी का पगहा तोड़, माँ के पास भागना   
भोरे-भोरे खेत में रोपनी 
खलिहान में धान की ओसौनी   
आँधियों में आम की गाछी में टिकोला बटोरना   
दरी बिछाकर ककहरा पढ़ना 
मास्टर साहब से छड़ी खाना। 
  
कितने अनजान हैं वे, कितना कुछ खोया है उन्होंने  
यूँ वे सभी अति-सुशिक्षित हैं 
चाँद और मंगल की बातें करते हैं   
एक उँगली के स्पर्श से, दुनिया का ज्ञान बटोर लेते हैं। 
  
पर हाँ! सच ही कहते हैं वे, हम देहाती हैं   
भात को चावल नहीं कहते 
रोटी को चपाती नहीं कहते   
तरकारी को सब्ज़ी नहीं कहते 
पावरोटी को ब्रेड नहीं कहते   
हम गाँव-जवार की बात करते हैं 
वे अमेरिका-इंग्लैंड की बात करते हैं। 
  
नहीं-नहीं! कोई बराबरी नहीं, हम देहाती ही भले   
पर उन सबों के लिए निराशा होती है 
जो अपनी माटी को नहीं जानते   
अपनी संस्कृति और समाज को नहीं पहचानते   
तुमने बस पढ़कर सुना है सब   
हमने जीकर जाना है सब। 

-जेन्नी शबनम (20. 10. 2020)
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9 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

अद्भुत रचना... गांव की सोंधी मिट्टी सी

kavita verma ने कहा…

बढ़िया रचना

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

सही बात। जो अपनी माटी, अपनी संस्कृति से अपरिचित वे लाख बातें करें विदेश की, सम्पन्नता की पर वे जीवन का असल समझ ही न सके।

Meena Bhardwaj ने कहा…

सादर नमस्कार,
आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 23-10-2020) को "मैं जब दूर चला जाऊँगा" (चर्चा अंक- 3863 ) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

"मीना भारद्वाज"

Sweta sinha ने कहा…

जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २३ अक्टूबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

सधु चन्द्र ने कहा…

अपनी संस्कृति और समाज को नहीं पहचानते
तुमने बस पढ़कर सुना है सब
हमने जीकर जाना है सब।

सुंदर रचना

Sudha Devrani ने कहा…

सचमुच दुख होता है उनके लिए जो अपनी जड़ो को पिछड़ा और गंवार कहते हैं ये नहीं जानते कि जिन्हें ये नकारते हैं यदि उन्होने (जड़ों) ने इन्हें नकारा तो.....।
बहुत ही सुन्दर... लाजवाब सृजन
वाह!!!

Onkar ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति

शिवम कुमार पाण्डेय ने कहा…

बहुत बढ़िया।