हरदी गुरदी
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कभी-कभी जी चाहता है
इतना जिऊँ इतना जिऊँ इतना जिऊँ
कि ज़िन्दगी कहे-
अब बस! थक गई! अब और नहीं जी सकती!
हरदी गुरदी! हरदी गुरदी! हरदी गुरदी!
पर सोचती हूँ
मैं ज़िन्दा भी हूँ क्या?
जो इतना जिऊँ इतना जिऊँ इतना जि
क्यों जियूँ, कैसे जियूँ, कितना जियूँ?
मैं तो कब की मर चुकी
कभी भाला कभी तीर व तलवार से
सदियों सदियों सदियों से
अभी तेज़ाब आग बलात्कार और चुन्
इसी सदी में इसी सदी में इसी सदी में
आज खून से लथपथ चीख रही हूँ
अभी अभी अभी
न तब किसी ने सुना न देखा न जाना
न अब।
दिन महीने साल व सदियाँ
आपस में कानाफूसी करते रहते-
ये ज़िन्दा क्यों रहती है?
ये मरकर हर बार जी क्यों जाती है?
मौत इसको छूकर लौट क्यों आती है
ये औरतें भी न अजीब चीज़ हैं
कितना भी मारो
जीना नहीं छोड़ती।
सोचती हूँ
मैं हँसती हूँ तो प्रश्न
प्रेम करती हूँ तो प्रश्न
अकेलेपन को भोगती हूँ तो प्रश्न
आबरू बचाने के लिए जूझती हूँ तो
हिम्मत दिखाती हूँ तो प्रश्न
हार जाती हूँ तो प्रश्न
अधिकार माँगती हूँ तो प्रश्न
प्रश्न प्रश्न प्रश्न।
उफ!
मेरी ज़ात ज़िन्दा है
यह प्रश्न है
बहुत बहुत बहुत जीना चाहती
यह भी प्रश्न है।
प्रश्नों से घिरी मैं
इतना इतना इतना जिऊँगी
कि ज़िन्दगी कहे-
जीना सीखो इससे
फिर कभी न कहना-
हरदी गुरदी! हरदी गुरदी! हरदी गुरदी!
- जेन्नी शबनम (21.6.2023)
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4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-06-2023) को "गगन में छा गये बादल" (चर्चा अंक 4669) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर रचना
अच्छी रचना।
वाह!!!
बहुत ही सटीक एवं लाजवाब
सच में मरकर भी जी रही है औरत
मारमार कर थक गये पर ये ना मरी...देखना एक दिन मारने वाले ही मर जायेंगे ।
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