गुरुवार, 3 अगस्त 2023

761. बिछड़े खेत (चोका)

बिछड़े खेत

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खेत बेचारे   

एक दूजे को देखें   

दुख सुनाएँ   

भाई-भाई से वे थे   

सटे-सटे-से   

मेड़ से जुड़े हुए,   

बिछड़े खेत   

बिक गए जो खेत   

वे रोते रहे   

मेड़ बना बाउंड्री   

कंक्रीट बिछे   

खेत से उपजेंगे   

बहुमंज़िला   

पत्थर-से मकान,   

खेत के अन्न   

शहर ने निगले   

बदले दिए   

कंक्रीट के जंगल,   

खेत का दर्द   

कोई  समझता   

धन की माया   

समझे सरमाया,   

खेत-किसान   

बेबस  लाचार   

हो रहे ख़त्म   

अन्नखेतकिसान   

खेत  बचा   

अन्न कहाँ उपजे?   

कौन क्या खाए?   

 सरमायादार   

अब तू पत्थर खा।  


- जेन्नी शबनम (2.8.2023)

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6 टिप्‍पणियां:

kuldeep thakur ने कहा…

आप ने लिखा.....
हमने पड़ा.....
इसे सभी पड़े......
इस लिये आप की रचना......
दिनांक 06/08/2023 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है.....
इस प्रस्तुति में.....
आप भी सादर आमंत्रित है......


अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०६-०८-२०२३) को 'क्यूँ परेशां है ये नज़र '(चर्चा अंक-४६७५ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर

Ankit choudhary ने कहा…

बहुत सुंदर 🙏

Onkar ने कहा…

सुंदर

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

अब तू पत्थर खा। :)
पत्थर खाने पर भी कर ना लग जाए कहीं |

सुन्दर |

Sudha Devrani ने कहा…

भाई-भाई से वे थे

सटे-सटे-से

मेड़ से जुड़े हुए,

बिछड़े खेत

बिक गए जो खेत
सही कहा..अब तो सभी खेत बस बिल्डिंग में तब्दील...
ओ सरमायादार
अब तू पत्थर खा।
बहुत सटीक एवं सुन्दर सृजन।